सुभाषित श्लोक best quotes in sanskrit with hindi translation
उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।
सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥
अथार्त : उत्साह श्रेष्ठ पुरुषों का बल है, उत्साह से बढ़कर और कोई बल नहीं है। उत्साहित व्यक्ति के लिए इस लोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
उदये सविता रक्तो रक्त:श्चास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥
अथार्त : उदय होते समय सूर्य लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है, सत्य है महापुरुष सुख और दुःख में समान रहते हैं ।
विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:।
परलोके धनं धर्म शीलं सर्वत्र वै धनम्॥
अथार्त : विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है, परलोक में धर्म धन है और शील सर्वत्र ही धन है ।
प्रदोषे दीपकश्चंद्र प्रभाते दीपको रवि:।
त्रैलोक्ये दीपको धर्म सुपुत्र: कुलदीपक:॥
अथार्त : शाम को चन्द्रमा प्रकाशित करता है, दिन को सूर्य प्रकाशित करता है, तीनों लोकों को धर्म प्रकाशित करता है और सुपुत्र पूरे कुल को प्रकाशित करता है ।
नाभिषेको न संस्कार सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥
अथार्त : कोई और सिंह का वन के राजा जैसे अभिषेक या संस्कार नहीं करता है, अपने पराक्रम के बल पर वह स्वयं पशुओं का राजा बन जाता है ।
यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पंडितान् उपाश्रयति।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥
अथार्त : जो पढ़ता है, लिखता है, देखता है, प्रश्न पूछता है, बुद्धिमानों का आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है जैसे कि सूर्य किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ ।
आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥
अथार्त : आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान असावधानी है ।
नारिकेलसमाकारा दृश्यन्तेऽपि हि सज्जनाः।
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः॥
अथार्त : सज्जन व्यक्ति नारियल के समान होते हैं, अन्य तो बदरी फल के समान केवल बाहर से ही अच्छे लगते हैं ।
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन वर्तयन्ति विचक्षणाः॥
अथार्त : बीते हुए समय का शोक नहीं करना चाहिए और भविष्य के लिए परेशान नहीं होना चाहिए, बुद्धिमान तो वर्तमान में ही कार्य करते हैं ।
क्षमा बलमशक्तानाम् शक्तानाम् भूषणम् क्षमा।
क्षमा वशीकृते लोके क्षमयाः किम् न सिद्ध्यति॥
अथार्त : क्षमा निर्बलों का बल है, क्षमा बलवानों का आभूषण है, क्षमा ने इस विश्व को वश में किया हुआ है, क्षमा से कौन सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है ।
न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥
अथार्त : कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है ।
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणत्यागे कुतो विद्या कणत्यागे कुतो धनम्॥
अथार्त : क्षण-क्षण विद्या के लिए और कण-कण धन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। समय नष्ट करने पर विद्या और साधनों के नष्ट करने पर धन कैसे प्राप्त हो सकता है ।
अग्निशेषमृणशेषं शत्रुशेषं तथैव च ।
पुन: पुन: प्रवर्धेत तस्माच्शेषं न कारयेत् ॥
अथार्त : यदि कोई आग, ऋण, या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए । इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए ।
अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥
अथार्त : आठ गुण पुरुष को सुशोभित करते हैं - बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता ।
आरोग्य बुद्धि विनयोद्यम शास्त्ररागाः ।
आभ्यन्तराः पठन सिद्धिकराः भवन्ति ।।
अर्थात:- आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम, और शास्त्र के प्रति अत्यधिक प्रेम – ये पाँच पढ़ने के लिए जरूरी आंतरिक गुण हैं।
सालस्यो गर्वितो निद्रः परहस्तेन लेखकः ।
अल्पविद्यो विवादी च षडेते आत्मघातकाः ॥
अर्थात:- आलसी होना, झूठा घमंड होना, बहुत ज्यादा सोना, पराये के पास लिखाना, अल्प विद्या, और वाद-विवाद ये छः आत्मघाती हैं!
अजरामरवत् प्राज्ञः विद्यामर्थं च साधयेत् ।
गृहीत एव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
अर्थात:- बुढापा और मृत्यु नहीं आनेवाले है, ऐसा समझकर मनुष्य को विद्या और धन प्राप्त करना चाहिए| पर मृत्यु ने हमारे बाल पकड़े हैं, यह समझकर धर्माचरण करना चाहिये।
विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥
अर्थात:- विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छ: जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है|
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।
अर्थात:- बड़ों का सम्मान करने वाले और नित्य वृद्धों (बुजुर्गों) की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल ये चार चीजें बढ़ती हैं।
विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ।।
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥
अर्थात:- विद्या अनुपम कीर्ति है, भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह(अभाव) में रति (आनंद) समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है, इसलिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन।
दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन ।
मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।
अर्थात:- दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि से सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।
लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।
अर्थात:- जिस मनुष्य के पास स्वयं का(प्रज्ञा) विवेक नहीं है, उसके शास्त्र किस काम के, जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्।
विद्या राजसु पुज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः॥
अर्थात:- विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, विद्या गुप्त धन है. वह भोग देनेवाली, यशदेने वाली, और सुखकारी है. विद्या गुरुओं की गुरु है, विदेश में विद्या बंधु है| विद्या बड़ी देवता है, राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं, विद्याविहीन व्यक्ति पशु हीं है।
विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥
अर्थात:- शस्त्रविद्या और शास्त्रविद्या ये दो प्राप्त करने योग्य विद्या हैं| इनमें से पहली वृद्धावस्था में हास्यास्पद बनाती है और दूसरी सदा आदर दिलाती है|
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ।।
अथार्त : महान व्यक्तियों के मन मे जो विचार होता है वही वे बोलते हैं और वैसा ही इनका शुद्ध आचरण होता है। इसके विपरीत दुष्ट के मन मे कुछ और होता है, बोलते कुछ और हैं, और करते कुछ और ऐसे लोगों पर अँधा विश्वाश करना अपने पेरों पे खुद कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम
पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।
अथार्त : अपमान करके दान देना, विलंब(देर) से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना| ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।
लुब्धमर्थेन गृणीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्ख छन्दानुवृत्त्या च तत्वार्थेन च पण्डितम् ।।
अथार्त : लालची मनुष्य को धन (का लालच) देकर वश में किया जा सकता है। क्रोधित व्यक्ति के साथ नम्र भाव रखकर उसे वश में किया जा सकता है। मूर्ख मनुष्य को उसके इच्छा अनुरूप बर्ताव कर वश में किया जा सकता है। लेकिन ज्ञानि व्यक्ति को केवल मुलभूत तत्व (सत्य) बताकर ही वश में कर सकते है।
चलन्तु गिरय: कामं युगान्तपवनाहताः।
कृच्छेरपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मनः।।
अथार्त : युगान्तकालीन वायु के झोंकों से पर्वत भले ही चलने लगें, परन्तु धैर्यवान् पुरूषों के निश्चल मन किसी भी संकट में नहीं डगमगाते ।
गुणेषु क्रियतां यत्नः किमाटोपैः प्रयोजनम्।
विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिताः।।
अथार्त : स्वयं के आचरण और व्यवहार में अच्छे गुणों की वृद्धी करनी चहिए। दिखावा करके लाभ नहीं होता। जैसे दुध न देने वाली गाय उसके गले मे लटकी हुई घंटी बजाने से बेची नही जा सकती।
न प्राप्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति।
न क्रुद्धः परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तमः स्मृतः।।
अथार्त : संत वही है जो मान देने पर हर्षित नही होता, अपमान होने पर क्रोधीत नही होता तथा स्वयं क्रोधीत होने पर कठोर शब्द नही बोलता।
यावत् भ्रियेत जठरं तावत सत्वं हि देहीनाम्।
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।
अथार्त : अपने स्वयं के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है। यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र है।
को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः।
मृदंगो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम्।।
अथार्त : इस संसार में कौन ऐसा है जो मुख में भोजन देने (इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति) कर देने पर वश में नहीं हो जाता ?
मृदंग (ढोलक) भी मुंह पर आटे का लेप लगाने के उपरांत मधुर ध्वनि देने लगता है।
श्रमेण दुःखं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते।
कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद ।।
अथार्त : उचित काम को करते समय होने वाले कष्ट के कारण थोडा दु:ख तो होता है। परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण होने पर निश्चित ही आनंद का अनुभव होता है।
खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी।
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमाः। ।
अथार्त : जब तक चन्द्रमा उगता नही, तब तक जुगनु चमकता है। परन्तु जब सुरज उगता है तब जुगनु भी नही होता तथा चन्द्रमा भी नही, दोनो सुरज के सामने फीके पड़ते है। अर्थार्थ सूरज की भांति ज्ञानवान बनो, पूरा विश्व आपके सामने नतमस्तक होगा।
सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्मधं त्यजति पण्डित:।
अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दुःसहः । ।
अथार्त : जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गवाने (आधा बचाने) का प्रयास करता है। क्योंकि आधे से भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सब कुछ गवाना बहुत दु:खदायक होता है।
शरदिन वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु नि:स्वनो मेघ: ।
नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजन: करोत्येव ।।
अथार्त : शरद ऋतु में बादल केवल गरजते है, बरसते नही। वर्षा ऋतु में बरसते है, गरजते नही। नीच (दुष्ट) मनुष्य केवल बोलता है, कुछ करता नही| परन्तु सज्जन करता है, बोलता नही।
अधर्मेणैवते पूर्व ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति। ।
अथार्त : कुटिलता व अधर्म से मानव क्षणिक समृद्वि व संपन्नता तो हांसिल कर लेता है। शत्रु को भी जीत लेता है। अपनी कामयाबी पर प्रसन्न भी होता है। परन्तु अन्त मे उसका विनाश निश्चित है।
असभ्दिः शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् ।
सभ्दिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम्। ।
अथार्त : दुर्जनो ने ली हुइ शपथ भी पानी के उपर लिखे हुए अक्षरों जैसे क्षणभंगूर ही होती है। परन्तु संत व्यक्ति ने सहज रूप से बोला हुआ वाक्य भी पत्थर पर खिंची हुई लकीर की तरह होता है ।।
आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा ।
पात्यते तु क्षणेनाधस्तथात्मा गुणदोषयोः ।।
अथार्त : शिला को पर्वत के उपर ले जाना एक कठिन कार्य है परन्तु पर्वत के उपर से नीचे ढकेलना बहुत ही सुलभ। ऐसे ही मनुष्य को सदगुणों से युक्त करना कठिन है पर उसे दुर्गुणों से भरना बहुत ही सुलभ है।
न मर्षयन्ति चात्मानं संभावयितुमात्मना।
अदर्शयित्वा शूरास्तू कर्म कुर्वन्ति दुष्करम्।।
अथार्त : शूरवीर अपने मुख पर दूसरों के द्वारा की गई प्रसंशा पसंद नहीं करते| शूरवीर अपना पराक्रम शब्दों से नहीं बल्कि मुश्किल और कठिन कार्यों को करके दिखाते हैं|
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ।।
जो मनुष्य (कुछ काम किए बिना) बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है। जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य भी खड़ा रहता है। जो सोता है। उसका भाग्य भी सोता जाता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है। अर्थात कर्म से ही भाग्य बदलता है ।
सर्वार्थसंभवो देहो जनित: पोषितो यतः।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा ।।
एक, सौ वर्ष की आयु प्राप्त हुआ मनुष्य देह भी अपने माता पिता के ऋणों से मुक्त नहीं होता। जो देह चार पुरूषार्थो (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की प्राप्तिी का प्रमुख साधन हैं, इस शरीर का निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है।
न अन्नोदकसमं दानं न तिथिद्वादशीसमा ।
न गायत्रयाः परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् ॥
अथार्त : अन्नदान जैसा दान नही है। द्वादशी जैसी पवित्र तिथी नही है। गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है तथा माता सब देवताओं से भी श्रेष्ठ है।
यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम्।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिश:।।
अथार्त : जो मनुष्य किसी भी जीव के प्रति अमंगल भावना नहीं रखता, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दृष्टी (समान) से देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है।
स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन् ।
कर्पूरः पावकस्पृष्टः सौरभं लभतेतराम्। ।
अथार्त : सज्जन व्यक्ति अपना नैसर्गिक अच्छा स्वभाव किसी बडी आपदा में भी उसी प्रकार नहीं छोड़ता हैं जिस प्रकार आग के संपर्क में भी आकर कपूर अपना मूल स्वाभाव(सुगंध) नहीं छोड़ता है बल्कि और भी अधिक सुगंध फैलाता है।
शोको नाशयते धैर्य, शोको नाशयते श्रृतम् ।।
शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपुः ॥
अथार्त : शोक धैर्य को नष्ट करता है, शोक ज्ञान को नष्ट करता है, शोक सर्वस्व का नाश करता है । इस लिए शोक जैसा कोइ शत्रू नही है।
श्रिय: प्रसूते विपदः रुणद्धि, यशांसि दुग्धे मलिनं प्रमार्टि।
संस्कार सौधेन परं पुनीते, शुद्धा हि बुद्धिः किलकामधेनुः ।।
अथार्त : पवित्र और शुद्ध बुद्धि (समझ) कामधेनु के सामान है, यह धन-धान्य पैदा करती है; विपत्तियों से बचाती है; यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है; और निकटतम लोगों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ।।
अथार्त : दयाभाव के बिना किया गया कर्म का फलरहित होता है, ऐसे काम में धर्म(सत्य) नहीं होता| जहाँ दया नही है वहां वेद (धर्म) भी अवेद (अधर्म) बन जाते हैं।
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।
अथार्त : ( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते।।
अथार्त : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।।
अर्थात- किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पढता है,करोड कल्प बीत जाने पर भी बिना भोगे कर्म का क्षय नहीं होता है।
अस्ति चेदिश्वरः कश्चित फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।
कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभर्हि सः ।।
अर्थात- प्राणियो को उनके लिए काम का शुभ अथवा अशुभ फल देने वाला कर्मातिरिक्त यदि कोई ईश्वर मान भी लिया जाए तो वह भी फल देने के समय कर्म करने वाले व्यक्ति की ही अपेक्षा रखता है, जो कर्म नहीं करता उसको फल नहीं देता इसलिए कर्म करना परमावश्यक है।
दर्शने स्पर्शणे वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति कथ्यते॥
अथार्त : यदि किसी को देखने से या स्पर्श करने से, सुनने से या बात करने से हृदय द्रवित हो तो इसे स्नेह कहा जाता है ।
नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥
अथार्त : विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।
No comments:
Post a Comment