मेरी पसंदीदा हिंदी कहानियों मे सबसे पसंदीदा कहानी है, चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की ' उसने कहा था’।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की लाजवाब कहानी ‘उसने कहा था’ न केवल प्रेम-कथाओं, बल्कि हिंदी की 10 उम्दा कहानियों में शुमार है। साहित्य जगह के नामी आलोचक नामवर सिंह की मानें तो गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' का समुचित मूल्यांकन होना अभी बाकी है। अभी इसे और समझे और पढ़े जाने की जरूरत है।
शीर्षक सीधे-सीधे पाठकों को खींचता है और उनसे पुकारकर कहता है कि पढ़ो, किसने कहा था? किससे कहा था? क्यों कहा था? क्या कहा था?
पढेंगे तभी तो पता चलेगा कि सूबेदारनी ने लहना सिंह से कहा था कि मेरे पति और बेटे की रक्षा करना और जो उसने अपनी जान की बाजी लगाकर की भी. अब सवाल उठता है कि कोई किसी से कुछ ऐसे ही तो नहीं कह देता. बिना किसी भरोसे के, रिश्ते और संबंध के ऐसी बात कहां होती है भला? न सामनेवाला इतनी आसानी से मान लेता है. संबंध है तो बस इतना कि 23 बरस पहले वे अमृतसर के बाजारों में कहीं मिले थे. लड़के ने खुद तांगे के पहिए के नीचे होकर भी लड़की की जान बचाई थी. लड़का, लड़की से रोज पूछता था, ‘तेरी कुड़माई हो गई? लड़की रोज शर्माती थी पर एक दिन उसने कह दिया था हो गई.
‘उसने कहा था’ प्रथम विश्वयुद्ध के तुरंत बाद लिखी गई थी. तुरंत घटे को कहानी में लाना उसके यथार्थ को इतनी जल्दी और इतनी बारीकी से पकड़ पाना आसान नहीं होता पर गुलेरी जी ने यह किया और खूब किया.
और तब उसने एक लड़के को मोरी में धकेल दिया था, एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि भी पाई थी. 12 साल के उस बच्चे की मनःस्थिति के बाद कहानी बीच के अंतराल को खाली छोड़ते हुए सीधे 25 साल आगे आती है. यह बिन बताए कि फिर क्या हुआ था. यहां चाहें तो आप कहानी में अपनी कल्पना से रंग भर लें, उन कुछ सूत्रों के आधार पर जो कहानी में यहां-वहां बिखरे हुए हैं.
वहां से यह कहानी युद्ध के मैदान तक एक लंबी छलांग लगाती है. यह समयांतर कहानी के फलक को काफी बड़ा बना देता है जो इस कहानी और लेखक को अमर बनाने वाला एक और तत्व है. युद्ध और प्रेम इस कहानी के दो कोण है या दो सिरे. यहां कहानी अमृतसर की गलियों की उस घटना के बाद सीधे प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे पर पहुंचती है. वहां के भारतीय सैनिकों, उनकी चुहलबाजियों, अपने वतन की याद और स्मृतियों के बीच. पांच खण्डों में और 25 वर्षों के लंबे अंतराल को खुद में समेटती यह कहानी विषय और अपने अद्भुत वर्णन में किसी उपन्यास की सी है. प्रेम, कर्तव्य और देशप्रेम के तीन मूल उद्देश्यों से जुड़ती, उसे अपना विषय बनाती हुई. कहीं भी अपने विषय से न भटकते हुए, न इधर-उधर होते हुए. शाब्दिक विवरणों से ज्यादा मनोविज्ञान को पढ़ते, पकड़ने और उसके चित्रण में रमती हुई. सोचकर देखें तो प्रेम, कर्तव्य और देशप्रेम एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं और सबके मूल में प्रेम ही है. कर्तव्य भी तो प्रेम का ही एक रूप होता है और देशप्रेम भी तो बड़े और वृहद् अर्थों में प्रेम है इसलिए यह कहानी हर अर्थ में प्रेम कहानी है.
मेरी दूसरी पसंदीदा हिंदी कहानी है, जयशंकर प्रसाद की कहानी -'पुरस्कार'। यह कहानी एक आदर्श महिला ' मधुलिका' की कहानी है, जो देश प्रेम और व्यक्ति प्रेम के मध्य संघर्ष मे अपना आदर्श प्रस्तुत करती है।।
पुरुस्कार कहानी हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ द्वारा लिखित कहानी है।
कहानी की मुख्य पात्र एक तरुण आयु की कन्या ‘मधुलिका’ है। जो कोशल राज्य के ही एक वीर सैनिक सिहंमित्र की पुत्री है। सिंहमित्र ने पूर्व समय में अपनी वीरता से कोशल राज्य के सम्मान की रक्षा की थी।
कहानी का आरंभ उस दृश्य के साथ होता है जब कोशल नरेश राज्य की परंपरा के निर्वाह के लिये हर वर्ष इन्द्र की पूजा होती थी। ये एक कृषि उत्सव था जिसमें राजा अपने राज्य के किसी किसान की भूमि का अधिग्रहण कर उसमें एक दिन का कृषि कार्य करता और उत्सव के अन्य आयोजन संपन्न करता था। इस बार मधूलिका का खेत राजा ने अधिग्रहण किया था। राजा पुरुस्कार स्वरूप मधुलिका बहुत बड़ी धनराशि देनी चाही वो पर वो पुरुस्कार लेने से मना कर देती है, और कहती है कि वो अपने खेत का सौदा नही करेगी। राजा के कहने पर और अन्य लोगों के समझाने पर भी वो नही मानती। इस उत्सव में आसपास से राज्यों से भी राजा-राजकुमार आदि अतिथि रूप में आते थे। मगध का राजकुमार अरुण भी वहाँ आया हुआ था और वो ये घटना देख रहा था।
उत्सव संपन्न हो जाता है, मधुलिका पुरुस्कार नही लेती है, राजकुमार अरुण ये मधुलिका से प्रभावित होता है। वो रात में मधुलिका की कुटिया में उससे मिलने आता है, उससे प्रणय निवेदन करता है। वो कहता है कि वो उसकी सहचरी बन जाये। वो कोशल नरेश से कहकर उसका खेत वापस दिलवा देगा। पर मधुलिका उसके आग्रह को ठुकरा देती है, वो वापस लौट जाता है।
मधुलिका फिर अपने खेत नही जाती और दूसरे खेतों में काम करके किसी तरह अपना जीवन-यापन करती है। यूं ही तीन वर्ष बीत जाते हैं। अब मधुलिका अपनी आर्थिक विपन्नता से व्यथित हो चुकी है, उसे राजकुमार अरुण की भी याद आती है। एक रात संयोग से राजकुमार स्वयं उसकी कुटिया में शरणार्थी के रूप में आ जाता है। वो बताता है कि उसने अपने राज्य में विद्रोह कर दिया है और अपने राज्य से निष्काषित कर दिया गया है। मधुलिका भी उससे प्रेम कर बैठती है और उसकी बातों में आ जाती है। अरुण मधुलिका को इस बात के लिये राजी कर लेता है कि वो कोशल नरेश से अपने खेत के बदले में किले के पास वाली भूमि मांग ले। चूंकि वो भूमि किले के पास है अतः वहाँ से अरुण अपने साथी सैनिकों के साथ किले पर आसानी से हमला कर सकता है। वो मधुलिका को लोभ देता है कि वो कोशल पर कब्जा कर अपना शासन स्थापित कर लेगा और उसे अपनी रानी बनायेगा। मधुलिका भी प्रेम में थी इसलिये उसे भी रानी बनने का लोभ हो जाता है। वो कोशल नरेश के पास जाकर किले के नाले के पास वाली भूमि मांग लेती है। अरुण भूमि पाकर खुश होता है वो कोशल पर छुपकर आक्रमण करने की तैयारी करने लगता है।
पर मधूलिका का मन अशांत है वो सोचती है कि वो क्या करने जा रही है। कहाँ उसने अपनी ईमानदारी और सम्मान की खातिर अपने खेत के बदले राजा से पुरुस्कार तक नही लिया, और अब वो राज्य के एक शत्रु को पनाह देने के लिए राजा की दी भूमि का उपयोग कर रही है। उसके पिता ने राज्य की रक्षा के लिये अपने प्राण दे दिये और वो राज्य के साथ विश्वासघात कर रही है। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारती है और वो राजा को सारी बाते बता देती है कि पड़ोसी राज्य मगध का विद्रोही राजकुमार अरुण कोशल पर आ्क्रमण करने की योजना बना रहा है। राजा शीघ्र ही अरुण को पकड़ लेता है। उसे मृत्युदंड दिया जाता है। राजा मधुलिका की प्रशंसा करते हुये उसे पुरुस्कार मांगने को कहता है तो मधुलिका स्वयं के लिये भी मृत्युदंड का मांग करते हुये अरुण के पास खड़ी हो जाती है।
इन दोनो ही कहानियों को अधिकतर पढ़े लिखे व्यक्ति पढ़ चुके होंगे, परंतु जिन्होंने नही पढ़ी या जिन्हे याद नही है उन्हे अवश्य पढ़नी चाहिए। इन्हे पढ़ने के बाद इन कहानियों की गहराई का पता चलता है।
द्वारा
लवलेश गौतम
एक सर्वेक्षण के मुताबिक, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की लाजवाब कहानी ‘उसने कहा था’ न केवल प्रेम-कथाओं, बल्कि हिंदी की 10 उम्दा कहानियों में शुमार है। साहित्य जगह के नामी आलोचक नामवर सिंह की मानें तो गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' का समुचित मूल्यांकन होना अभी बाकी है। अभी इसे और समझे और पढ़े जाने की जरूरत है।
शीर्षक सीधे-सीधे पाठकों को खींचता है और उनसे पुकारकर कहता है कि पढ़ो, किसने कहा था? किससे कहा था? क्यों कहा था? क्या कहा था?
पढेंगे तभी तो पता चलेगा कि सूबेदारनी ने लहना सिंह से कहा था कि मेरे पति और बेटे की रक्षा करना और जो उसने अपनी जान की बाजी लगाकर की भी. अब सवाल उठता है कि कोई किसी से कुछ ऐसे ही तो नहीं कह देता. बिना किसी भरोसे के, रिश्ते और संबंध के ऐसी बात कहां होती है भला? न सामनेवाला इतनी आसानी से मान लेता है. संबंध है तो बस इतना कि 23 बरस पहले वे अमृतसर के बाजारों में कहीं मिले थे. लड़के ने खुद तांगे के पहिए के नीचे होकर भी लड़की की जान बचाई थी. लड़का, लड़की से रोज पूछता था, ‘तेरी कुड़माई हो गई? लड़की रोज शर्माती थी पर एक दिन उसने कह दिया था हो गई.
‘उसने कहा था’ प्रथम विश्वयुद्ध के तुरंत बाद लिखी गई थी. तुरंत घटे को कहानी में लाना उसके यथार्थ को इतनी जल्दी और इतनी बारीकी से पकड़ पाना आसान नहीं होता पर गुलेरी जी ने यह किया और खूब किया.
और तब उसने एक लड़के को मोरी में धकेल दिया था, एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि भी पाई थी. 12 साल के उस बच्चे की मनःस्थिति के बाद कहानी बीच के अंतराल को खाली छोड़ते हुए सीधे 25 साल आगे आती है. यह बिन बताए कि फिर क्या हुआ था. यहां चाहें तो आप कहानी में अपनी कल्पना से रंग भर लें, उन कुछ सूत्रों के आधार पर जो कहानी में यहां-वहां बिखरे हुए हैं.
वहां से यह कहानी युद्ध के मैदान तक एक लंबी छलांग लगाती है. यह समयांतर कहानी के फलक को काफी बड़ा बना देता है जो इस कहानी और लेखक को अमर बनाने वाला एक और तत्व है. युद्ध और प्रेम इस कहानी के दो कोण है या दो सिरे. यहां कहानी अमृतसर की गलियों की उस घटना के बाद सीधे प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे पर पहुंचती है. वहां के भारतीय सैनिकों, उनकी चुहलबाजियों, अपने वतन की याद और स्मृतियों के बीच. पांच खण्डों में और 25 वर्षों के लंबे अंतराल को खुद में समेटती यह कहानी विषय और अपने अद्भुत वर्णन में किसी उपन्यास की सी है. प्रेम, कर्तव्य और देशप्रेम के तीन मूल उद्देश्यों से जुड़ती, उसे अपना विषय बनाती हुई. कहीं भी अपने विषय से न भटकते हुए, न इधर-उधर होते हुए. शाब्दिक विवरणों से ज्यादा मनोविज्ञान को पढ़ते, पकड़ने और उसके चित्रण में रमती हुई. सोचकर देखें तो प्रेम, कर्तव्य और देशप्रेम एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं और सबके मूल में प्रेम ही है. कर्तव्य भी तो प्रेम का ही एक रूप होता है और देशप्रेम भी तो बड़े और वृहद् अर्थों में प्रेम है इसलिए यह कहानी हर अर्थ में प्रेम कहानी है.
मेरी दूसरी पसंदीदा हिंदी कहानी है, जयशंकर प्रसाद की कहानी -'पुरस्कार'। यह कहानी एक आदर्श महिला ' मधुलिका' की कहानी है, जो देश प्रेम और व्यक्ति प्रेम के मध्य संघर्ष मे अपना आदर्श प्रस्तुत करती है।।
पुरुस्कार कहानी हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ‘जयशंकर प्रसाद’ द्वारा लिखित कहानी है।
कहानी की मुख्य पात्र एक तरुण आयु की कन्या ‘मधुलिका’ है। जो कोशल राज्य के ही एक वीर सैनिक सिहंमित्र की पुत्री है। सिंहमित्र ने पूर्व समय में अपनी वीरता से कोशल राज्य के सम्मान की रक्षा की थी।
कहानी का आरंभ उस दृश्य के साथ होता है जब कोशल नरेश राज्य की परंपरा के निर्वाह के लिये हर वर्ष इन्द्र की पूजा होती थी। ये एक कृषि उत्सव था जिसमें राजा अपने राज्य के किसी किसान की भूमि का अधिग्रहण कर उसमें एक दिन का कृषि कार्य करता और उत्सव के अन्य आयोजन संपन्न करता था। इस बार मधूलिका का खेत राजा ने अधिग्रहण किया था। राजा पुरुस्कार स्वरूप मधुलिका बहुत बड़ी धनराशि देनी चाही वो पर वो पुरुस्कार लेने से मना कर देती है, और कहती है कि वो अपने खेत का सौदा नही करेगी। राजा के कहने पर और अन्य लोगों के समझाने पर भी वो नही मानती। इस उत्सव में आसपास से राज्यों से भी राजा-राजकुमार आदि अतिथि रूप में आते थे। मगध का राजकुमार अरुण भी वहाँ आया हुआ था और वो ये घटना देख रहा था।
उत्सव संपन्न हो जाता है, मधुलिका पुरुस्कार नही लेती है, राजकुमार अरुण ये मधुलिका से प्रभावित होता है। वो रात में मधुलिका की कुटिया में उससे मिलने आता है, उससे प्रणय निवेदन करता है। वो कहता है कि वो उसकी सहचरी बन जाये। वो कोशल नरेश से कहकर उसका खेत वापस दिलवा देगा। पर मधुलिका उसके आग्रह को ठुकरा देती है, वो वापस लौट जाता है।
मधुलिका फिर अपने खेत नही जाती और दूसरे खेतों में काम करके किसी तरह अपना जीवन-यापन करती है। यूं ही तीन वर्ष बीत जाते हैं। अब मधुलिका अपनी आर्थिक विपन्नता से व्यथित हो चुकी है, उसे राजकुमार अरुण की भी याद आती है। एक रात संयोग से राजकुमार स्वयं उसकी कुटिया में शरणार्थी के रूप में आ जाता है। वो बताता है कि उसने अपने राज्य में विद्रोह कर दिया है और अपने राज्य से निष्काषित कर दिया गया है। मधुलिका भी उससे प्रेम कर बैठती है और उसकी बातों में आ जाती है। अरुण मधुलिका को इस बात के लिये राजी कर लेता है कि वो कोशल नरेश से अपने खेत के बदले में किले के पास वाली भूमि मांग ले। चूंकि वो भूमि किले के पास है अतः वहाँ से अरुण अपने साथी सैनिकों के साथ किले पर आसानी से हमला कर सकता है। वो मधुलिका को लोभ देता है कि वो कोशल पर कब्जा कर अपना शासन स्थापित कर लेगा और उसे अपनी रानी बनायेगा। मधुलिका भी प्रेम में थी इसलिये उसे भी रानी बनने का लोभ हो जाता है। वो कोशल नरेश के पास जाकर किले के नाले के पास वाली भूमि मांग लेती है। अरुण भूमि पाकर खुश होता है वो कोशल पर छुपकर आक्रमण करने की तैयारी करने लगता है।
पर मधूलिका का मन अशांत है वो सोचती है कि वो क्या करने जा रही है। कहाँ उसने अपनी ईमानदारी और सम्मान की खातिर अपने खेत के बदले राजा से पुरुस्कार तक नही लिया, और अब वो राज्य के एक शत्रु को पनाह देने के लिए राजा की दी भूमि का उपयोग कर रही है। उसके पिता ने राज्य की रक्षा के लिये अपने प्राण दे दिये और वो राज्य के साथ विश्वासघात कर रही है। उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारती है और वो राजा को सारी बाते बता देती है कि पड़ोसी राज्य मगध का विद्रोही राजकुमार अरुण कोशल पर आ्क्रमण करने की योजना बना रहा है। राजा शीघ्र ही अरुण को पकड़ लेता है। उसे मृत्युदंड दिया जाता है। राजा मधुलिका की प्रशंसा करते हुये उसे पुरुस्कार मांगने को कहता है तो मधुलिका स्वयं के लिये भी मृत्युदंड का मांग करते हुये अरुण के पास खड़ी हो जाती है।
इन दोनो ही कहानियों को अधिकतर पढ़े लिखे व्यक्ति पढ़ चुके होंगे, परंतु जिन्होंने नही पढ़ी या जिन्हे याद नही है उन्हे अवश्य पढ़नी चाहिए। इन्हे पढ़ने के बाद इन कहानियों की गहराई का पता चलता है।
द्वारा
लवलेश गौतम
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