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Tuesday, November 28, 2017

Guru Kripa: अपने हिस्से का समाज को देने से भाग्य का लेख बदला

धर्मस्थल नाम का एक राज्य था। अपने गुरु के प्रति एकनिष्ठ भक्ति, पूर्ण समर्पण के कारण उस राज्य के प्रजावत्सल राजा को उसकी प्रजा  गुरुभक्त के नाम से पुकारती थी। राजा गुरुभक्त के गुरुदेव - शांत सौम्य, परम तपस्वी, त्रिकालदर्शी सर्वसमर्थ गुरु थे। लोगों का मानना था की गुरुदेव में परमात्मा के लिखे प्रारब्ध को भी बदलने की शक्ति है।

शौर्य, वीरता, दया, दान का साक्षात् स्वरूप वह चक्रवर्ती सम्राट यश प्रतिष्ठा प्रचुर धन, अक्षुण्य सम्पदा होने के बाद भी सुखी नहीं था।

उसे अपने निहसंतान होने का दुःख सालता रहता, अपने गुरुदेव से जब भी वह अपनी इस व्यथा की चर्चा करता उसके समर्थशाली गुरु उसकी इस चर्चा को अनसुना कर देते।

गुरुदेव के इस व्यवहार ने उसे अंदर से और विचलित कर दिया क्योंकि वह इस बात को अच्छे से जानता था की उसके गुरु के मुख से निकले आशीर्वचन को पूरा करने के लिए परमात्मा को भी बाध्य होना पड़ेगा।

संतानहीनता के कारण उसे अपना सारा वैभव निस्सार दिखाई देता था। एक दिन अपनी उद्विग्न मानसिकता में उसने अपने श्रीगुरु के चरणों में निवेदन किया-हे देव आपकी सदकृपा से मैं आज चक्रवर्ती सम्राट की ख्याति से लब्ध हूँ संसार भर का सारा सुख मुझे सहज ही प्राप्त है, मुझे समझ नहीं पड़ता परमात्मा मुझे मेरे किस पाप की सज़ा दे रहा है जो उसने मुझे अभी तक संतान नहीं दी ?
गुरुदेव मेरे जीवन का सूर्य अब मध्यान की ओर अग्रसर है, हे सर्वसमर्थ परमात्मा के साक्षात् प्रतिरूप आप मुझ अकिंचन पर कृपा करें जिससे मैं संतान का सुख प्राप्त कर सकूँ। मेरे बाद मेरी प्रजा की कौन रक्षा करेगा ? कौन उनका पोषण करेगा ? कौन होगा जो इस विशाल राज्य के गौरव का संवर्धन कर सके ? हे कृपानिधान क्या मेरे भाग्य में संतान नहीं है ? यदि ऐसा है, तो मैं जानता हूँ कि आप में वह सामर्थ्य है जो परमात्मा के लेख को भी बदल सकता है, हे करुणा के सागर मेरी इस व्यथा का निवारण कीजिये।

अपने अतिप्रिय शिष्य की वेदना से गुरुदेव भी व्यथित हो गये। वे त्रिकालदर्शी थे, वे जानते थे की ब्रह्मा ने उनके इस शिष्य के भाग्य में दो संताने दीं हैं, किंतु वे दोनों की हत्भाग्य होंगी।

इस चक्रवर्ती सम्राट के लड़के के भाग्य में ब्रह्मा ने टूटे सींग वाला एक बैल दिया है और मेहनत मज़दूरी से जीवनयापन करना लिखा है, और लड़की का भाग्य तो और भी भीषण है, उसे वेश्यावृत्ति से अपना जीवकोपार्जन करना होगा।

किसी भी राजा के लिए उसकी संतान का यह दुःख मरणांतक कष्ट के जैसा होता है इसलिये गुरुदेव निरंतर अपने इस प्रिय समर्पित धर्मनिष्ठ शिष्य के इस # दुर्योग को अपनी बौद्धिक चेतना से टालते रहे। उन्होंने राजा के विवाह के तुरंत बाद उसे विश्वविजय की प्रेरणा दी जिसमें उसे दस वर्ष का समय लगा, इसके बाद राजा को उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने के लिये आदेश दिया और यज्ञ की समाप्ति तक उसे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के निर्देश दिये जिसे सम्पन्न करने में राजा को चार वर्ष और लगे।

राजा रानी पिछले चौदह वर्षों से विवाहित थे किंतु अभी तक उनमें पति पत्नी के सम्बंध स्थापित नहीं हो पाये थे।

किंतु आज अपने शिष्य के करुण क्रंदन को सुनकर गुरुदेव को लगा अब ब्रह्मा के आलेख को टालना सम्भव नहीं है, होनी होना चाहती है।

गुरुदेव अपने शिष्य का हित देख रहे थे, जो शिष्य को प्रिय नहीं था। और शिष्य गुरु से अपने प्रिय की याचना कर रहा था जो उसके लिए हितकर नहीं था।
गुरुदेव ने अपनी आँखें बंद कर लीं और बोले पुत्र तुम्हारा मुझपर अटूट विश्वास अभिनंदनीय है, तुम जैसा शिष्य मिलना किसी भी गुरु के लिए परम सौभाग्य का विषय होता है।

यह सत्य है की गुरु परमात्मा के लिखे को बदल सकता है, किंतु पुत्र जब परमात्मा गुरु की इच्छा को पूरा करता है तब गुरु का भी कर्तव्य होता है की वह परमात्मा की इच्छा का मान रखते हुए उसके लिखे प्रारब्ध में बाधा ना बने। किंतु अब जो होना है वो हो, मेरा आशीर्वाद है की परमात्मा तुम्हारी कामना की पूर्ति करें।

अपने सर्वसमर्थ गुरु के आशीर्वचनों को सुन राजा प्रसन्नता से उनके चरणों में झुक गया गुरुदेव ने अपना स्नेहसिक्त हाथ उसके सर पर रख दिया और उनकी आँखों से दो अश्रुबिंदु उसके सिर पर गिर गये गुरुदेव ने बेहद करुणामयी स्वर में अपने प्रिय शिष्य से कहा की पुत्र अब मैं हिमालय पर तपस्या करने के लिए प्रस्थान करूँगा, सम्भवत: अब तुमसे मिलना ना हो सके मेरा आशीर्वाद है की तुम्हारा सदैव कल्याण हो।

गुरुदेव उठे और अपने शिष्य को वहीं बैठा छोड़ अपने दंड कमंडल सहित कुटिया से बाहर निकल गये।

कालान्तर में राजा के यहाँ एक लड़का और एक लड़की का जन्म हुआ। लड़का जब सात वर्ष का था और लड़की पाँच वर्ष की थी उसी समय कई राजाओं ने एक साथ मिलकर धर्मस्थल पर भीषण आक्रमण किया आक्रांताओं ने चारों ओर तबाही का तांडव मचा दिया, राजा-रानी वीरगति को प्राप्त हुए। किंतु देवयोग से उनके दोनों बच्चे बच गये।

इस घटना के क़रीब पंद्रह वर्ष बाद सर्वसमर्थ गुरुदेव अपने धर्मपरायण शिष्य के दोनों भाग्यहीन बच्चों की सहायता करने के संकल्प को लेकर धर्मस्थल पहुँचे।

कुछ पुराने लोगों ने गुरुदेव का स्वागत कर धर्मस्थल राज्य के ध्वंस की कहानी बताई, गुरुदेव को बताया की हत्भाग्य राजकुमार मज़दूरों के टोले में एक झोपड़ी में रहकर मेहनत मज़दूरी करके अपने दिन काट रहा है सम्पत्ति के नाम पर उसके पास मात्र एक टूटे सींग वाला बैल है।

इस त्रासद कथा को सुन गुरुदेव ने दीर्घ निहश्वास छोड़ते हुए बेहद धीमे स्वर में कहा- हा परमात्मा तेरा न्याय भी विचित्र है ? और कृपानिधान गुरुदेव उसी रात राजकुमार की झोपड़ी पर पहुँच गये।

एक संत को अपनी झोपड़ी के द्वार पर खड़ा देख राजकुमार बाहर आया गुरुदेव ने उसे अपना परिचय दिया राजकुमार विवहल होकर उनके चरणों में गिर पड़ा और गुरुदेव को ससम्मान अपने झोंपड़े में ले गया।

गुरुदेव ने राजकुमार से उसके जीवन के बारे पूछा, राजकुमार ने प्रसन्न मन से गुरुदेव को बताया की पूज्यवर मेरे पास एक बैल है जिसे लोग किराये पर लेते हैं इसकी एवज़ में मुझे तांबे की एक मुद्रा मिलती है, जिससे मुझे और मेरे बैल को एक समय का भोजन मिल जाता है, परमात्मा बड़ा कृपालु है वह मुझे व मेरे बैल को कभी भी भूखा सोने नहीं देता।
अपार कष्ट के बाद भी राजकुमार को परमात्मा के प्रति अनुग्रह के भाव से भरा देख गुरुदेव प्रसन्न हो गये, उन्होंने बेहद ममता से उस हत्भाग्य राजकुमार को देखा और उसे आश्वस्त करते हुए कहा की पुत्र बहुत अच्छा है अब तुम एक काम करो कल सुबह बाज़ार में जाकर इस बैल को जितनी मुद्राओं में बिके-बेच आओ।

राजकुमार गुरुदेव के इस विचित्र आदेश से सोच में पड़ गया उसने सोचा की मेरे पास मेरी जीविका के लिए मात्र यही एक बैल है यदि इसे ही बेच दूँगा तो मेरा सत्यानाश हो जायेगा !!

किंतु राजकुमार भी धर्मनिष्ठ राजा का कुलीन पुत्र था दरिद्रता ने उसकी कुलीनता को नष्ट नहीं किया था, उसने निर्णय लिया की सदगुरु के आदेश के पालन से मिला हुआ नर्क उनके आदेश की अवहेलना के बाद मिलने वाले पृथ्वी के राज्य से भी अधिक कल्याणकारी होता है। उसने गुरुदेव के चरणों प्रणाम करते हुए जो आज्ञा गुरुदेव कहा और चला गया।

अगले दिन बाज़ार में उसका वह बैल १०० स्वर्ण मुद्राओं में बिक गया, उसने घर आकर वे स्वर्ण मुद्रायें गुरुदेव के चरणों में रख दीं, गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए आदेश दिया की पुत्र इसमें से आधी मुद्रायें तुम अपने पास सुरक्षित रख लो व आधी मुद्राओं का भंडारा कर दो- दीन दुखियों ग़रीबों को प्रेम से छक कर भोजन कराओ।

यह और भी विचित्र आदेश था राजकुमार ने सोचा की मेरे पास कुल जमा पूँजी यही १०० स्वर्ण मुद्रायें हैं और गुरुदेव इसमें से आधी भंडारे में ख़र्च करने का आदेश दे रहे हैं ? अभी तो मुझे परमात्मा कम से कम एक समय का भोजन देते थे लेकिन अब लगता है की मैं बहुत जल्दी भूख से ही मर जाऊँगा ? किंतु फिर उसके मन में विचार आया की गुरु के आदेश की अवहेलना करके मिलने वाले छपन्न भोग से कही अधिक कल्याणकारी है गुरुदेव के आदेश का पालन करते हुए भूखा रहना, और वह अपनी सभी चिंताओं को श्रीगुरु के चरणों में समर्पित कर निश्चिन्त होकर भंडारे की तैयारी में लग गया और अपनी बस्ती के सभी दीन दुखियों को, ग़रीबों और भिखारियों को उसने सम्मान सहित भोजन पर आमंत्रित किया व प्रेमपूर्वक सभी को छक कर भोजन कराये। भंडारा समाप्त होते-होते रात हो गई राजकुमार थककर चूर होने के बाद भी एक अनोखी तृप्ति और आनंद से भरा हुआ अपने गुरुदेव के पास आया उनके चरण स्पर्श किये और सोने चला गया।

उसे सोये हुए मुश्किल से एक घंटा ही हुआ था की उसे लगा जैसे कोई उसकी झोपड़ी के दरवाज़े पर ठोकर मार रहा है, उसने दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर एक टूटे सींगों वाला बैल खड़ा है ! किंतु ये उसका बैल नहीं है कोई अन्य बैल है। उसने बैल के मालिक को गली में ढूँढने का प्रयास किया किंतु वहाँ कोई नहीं मिला वह आश्चर्यचकित सा गुरुदेव के पास आया, गुरुदेव जाग रहे थे, वे तो जैसे उसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे- राजकुमार ने बताया की एक टूटे सींगों वाला बैल उसकी झोपड़ी के दरवाज़े पर खड़ा हुआ है जो उसका नहीं है।

गुरुदेव ने मंदमंद मुस्कुराते हुए कहा ठीक है, तुम निश्चिन्त होकर उसे बाँध लो और कल उस बैल को बाज़ार में ले जाकर जितने में बिके बेच आओ।
राजकुमार विचलित होकर सोचने लगा- किसी अन्य की सम्पत्ति को यूँ ही बेच देना अधर्म की श्रेणी में आता है। मेरे प्रतापी पिता के तपस्वी गुरु पता नहीं क्यों मुझ दुर्भाग्यशाली को यह अधर्म को करने की प्रेरणा दे रहे हैं ? यदि मैं इस बैल को लेकर बाज़ार गया और कहीं इसका मालिक बैल को ढूँढते हुए वहाँ पहुँच गया तो अभी तक गुमनामी का जीवन जीने वाला मैं बदनामी के कलंक से कलंकित हो जाऊँगा। मैं दुर्भागी तो हूँ ही अब दुराचारी भी कह लाऊँगा, साथ ही मेरा यह चौर्य कर्म मेरे स्वर्गीय पिता की अक्षुण्य कीर्ति के नाश का कारण भी बनेगा।

राजकुमार के द्वन्द को समझते हुए गुरुदेव बोले- पुत्र धर्म अधर्म, यश अपयश, की सारी शंका कुशंका को तुम मेरे ऊपर छोड़ते हुए, निश्चिन्त होकर मेरे आदेश का पालन करो।

गुरुदेव के प्रत्यक्ष आदेश को पाते ही राजकुमार द्वन्द मुक्त हो गया और बहुत सुबह ही उस बैल के साथ बाज़ार में जाकर खड़ा हो गया।
शाम को जब वह गुरुदेव के पास पहुँचा तो उसने स्वर्ण मुद्रायें उनके चरणों में रखते हुए कहा की गुरुदेव आपकी कृपा से यह बैल भी १०० स्वर्ण मुद्राओं में बिक गया।

गुरुदेव ने प्रसन्न मन से कहा पुत्र इसमें से पचास मुद्राओं को सुरक्षित रखते हुए, बाक़ी की पचास मुद्राओं का फिर से सभी दीन दुखियों को भंडारा कर दो।

राजकुमार ने देखा की जिसके पास प्रतिदिन मात्र एक तांबे की मुद्रा होती थी जिसे स्वयं ही बमुश्किल एक समय ही भोजन प्राप्त होता था, गुरुदेव के आते ही उसके पास मात्र दो दिनों में १०० स्वर्ण मुद्रायें संचित हो गईं, साथ ही वह पूरी बस्ती के सभी दीन दुखियों को भी भोजन करा पा रहा है, स्वयं अतृप्त रहने वाला आज दूसरों की तृप्ति का कारण बन गया।

सभी को भोजन कराने के बाद, आनंदमग्न राजकुमार गुरुदेव के चरण स्पर्श करके जैसे ही सोने के लिए गया की उसे दरवाज़े पर किसी पशु के टकराने की आवाज़ सुनाई दी, उसने देखा कि उसके दरवाज़े पर फिर से एक और टूटे सींगों वाला बैल खड़ा है !!! वह तुरंत गुरुदेव के पास गया देखा की वे अध्यनरत हैं, गुरुदेव ने राजकुमार के कुछ बोलने से पहले ही आदेशात्मक स्वर में कहा-पुत्र यह बैल भी तुम्हारे लिए ही है, इसे कल किसी अन्य बाज़ार में जाकर बेंच आओ।

अब यह नित्य का नियम हो गया, राजकुमार के झोपड़े के दरवाज़े पर प्रतिदिन एक बैल आकर खड़ा हो जाता, वह उसे १०० स्वर्ण मुद्राओं में बेच देता, आधी मुद्रायें संचित कर लेता और आधी में दीन दुखियों को छककर भंडारा करता।

लोग उसे दीनानाथ के नाम से पुकारने लगे, दीन दुखी सामान्य जन अपनी समस्याओं के समाधान के लिए अब राजा के पास या राजदरबार में ना जाकर राजकुमार के पास पहुँच जाते और राजकुमार अपने गुरु के आदेश से उस संचित राशि में से उनकी पढ़ाई, लिखाई, दवाई में सहयोग करता, उनके घरों की मरम्मत, बच्चों के विवाहादी संस्कारों में सहयोग करता, उनके व्यापार व्यवस्था में ख़र्च करता। उसके मान सम्मान यश प्रतिष्ठा कीर्ति की ख़ुशबू चारों ओर फैलने लगी, वह हत्भाग्य राजकुमार जन-जन के हृदय सिंहासन पर विराजमान हो गया। वह दिन भर मज़दूरों के जैसी मेहनत करता किंतु अब वह लोगों के मकानों को बनाने के लिए पत्थर नहीं, लोगों के मन को सजाने के लिए उनकी पीड़ा को तोड़ता था।

अब वह फ़सलों के रख रखाव या उनके संरक्षण संवर्धन के लिए नहीं बल्कि नस्लों के रख रखाव उनके संरक्षण संवर्धन के एक सजग प्रहरी के रूप में पसीना बहाता।

निराश, दुर्भाग्यशाली राजकुमार सदगुरु की कृपा से लोगों की आशा और सौभाग्य का केंद्र हो गया। उस अनाथ को लोगों के अपना नाथ मान लिया था व अपने आशीर्वाद प्रेम आदर से उसका स्वयं के मनोराज्य में राज्याभिषेक कर दिया था। वह लोगों के भूखंड का नहीं उनके भावखंड का सम्राट बन बैठा था।

राजकुमार इस चमत्कार से अभिभूत था उसने गुरुदेव से पूछा की हे परमात्मा ये सब क्या है ? लोग कहते थे की मेरे भाग्य में सिर्फ़ एक टूटे सींगों वाला बैल है, मैं अत्यंत दुर्भाग्यशाली हूँ, मैं मेहनत मज़दूरी से ही पेट पालूँगा। किंतु गुरुदेव आपने तो परमात्मा का आलेख ही बदल दिया ? अब मैं स्वयं को परम सौभाग्यशाली प्रसन्न आनंदित परमात्मा का कृपापात्र मानता हूँ। मेरे पिता सत्य ही कहते थे की सदगुरु परमात्मा से अधिक सामर्थ्यवान होते हैं। राजकुमार ने भावविवहल होते हुए श्रीगुरु के चरणों में अपना शीश रख दिया।

गुरुदेव ने बहुत स्नेह से उसे देखा और बोले- पुत्र मैंने ब्रह्मा का लिखा बदला नहीं है। किंतु हाँ उनको अपने लिखे की पूर्ति करने के लिए बाध्य अवश्य कर दिया, ब्रह्मा ने तुम्हारे भाग्य में टूटे सींगों वाला बैल लिखा था, जिसे मैं प्रतिदिन तुमसे बाज़ार में बिकवा देता हूँ, उससे जो धन मिलता है उसे भी दीनों के भंडारे में ख़र्च करवा देता हूँ, संचित राशि से तुम उनकी अन्य प्रकार से सहायता करते हो, और स्वयं के लिए उनका आशीर्वाद, सद्भावनाएँ, आदर, प्रेम, विश्वास अर्जित करते हो। हम ब्रह्मा के लेख को काट नहीं रहे सिर्फ़ उनके अन्याय को पाटने का कार्य कर रहे हैं, जब बैल तुम्हारे पास है ही नहीं तो उन्हें विवश होकर तुम्हारी आयु पूर्ण होने तक अपने लिखे प्रारब्ध की पूर्ति करनी होगी।

पुत्र जब हम अपने हिस्से का समाज को दे देते हैं तब परमात्मा को विवश होकर समाज के हिस्से का तुम्हे देना पड़ता है। इसलिए पुत्र अपनी सम्पत्ति को निरंतर अनासक्त भाव से लुटाते रहना तुम सदैव आनंद से रहोगे।

किसी को लूट कर सम्पन्नता अर्जित करने से कहीं अधिक आनंद स्वयं को लुटा कर सुख अर्जित करने में है।

तुम्हारे भाग्य में सम्पत्ति का अर्जन नहीं सुख का अर्जन है, इसका विसर्जन ही तुम्हारे सृजन का आधार है। सम्पन्न व्यक्ति सुखी भी हो यह आवश्यक नहीं , किंतु सुखी व्यक्ति सदैव ही सम्पन्न व्यक्ति की श्रेणी में रखा जाता है।

मैंने, तुम्हारे प्रारब्ध के विषय में परमात्मा की इच्छा का पूरा मान रखते हुए तुम्हारी दशा बदलने का प्रयास नहीं किया पुत्र, अपितु तुम्हारे जीवन की दिशा बदल दी। क्योंकि मनुष्य की दशा पर परमात्मा का अधिकार होता है , किंतु शिष्य की दिशा गुरु के अधिकार क्षेत्र मे
आती है ।

तुम अत्यंत समर्पित शिष्य हो इसलिए तुमने गुरु के दिशा निर्देशों का अक्षरश: पालन किया इसलिए आज तुम्हारी दशा भी बदल गयी।

गुरुदेव ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा- पुत्र अब मैं तुम्हारी छोटी बहन के यहाँ जा रहा हूँ, वह बच्ची अपने दुर्भाग्य के चरम को भोग रही है, मेरा दायित्व है की मैं परमात्मा प्रदत्त उसके दुर्भाग्य को सौभाग्य में रूपांतरित करने का प्रयास करूँ। सदैव लोगों के हृदयराज्य पर राज करो।

श्रीगुरु के प्रति अनुग्रह से भरा हुआ राजकुमार उनके साथ उन्हें विदा करने गाँव की सीमा तक गया, अपने हृदयसम्राट को नंगे पाँव चलता देख सम्पूर्ण गाँव ही उसके साथ हो लिया। गाँव की सीमा से बहार निकल श्रीगुरु राजकुमारी के कल्याण के लिए उस नगर को ओर बढ़ चुके थे.. उन्होंने औचक ही पीछे पलटकर देखा तो पाया कि राजकुमार अभी भी गाँव की सीमा पर खड़ा होकर अपने गुरु की ओझल होती काया को देख रहा था।

तमिल लोक कथा
द्वारा
श्री आसुतोश राणा
(प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता)
जन्मस्थली: गाडरवाडा, जबलपुर(म.प्र.)

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