गायत्री मंत्र की महिमा: -
किसी गायत्री-निष्ठ सज्जन का प्रश्न है कि गायत्री-मन्त्र का वास्तविक अर्थ क्या है?
गायत्री-मन्त्र के द्वारा किस स्वरूप से किस देवता का ध्यान किया जाय?
कोई गोरूपा गायत्री का, कोई आदित्यमण्डलस्था श्वेतद्मस्थिता किसी देवी का ध्यान करना बतलाते हैं।
कोई ब्रह्माणी, रुद्राणी, नारायणी का ध्यान उचित समझते हैं, कहीं पंचमुखी गायत्री का ध्यान बतलाया गया है, तो कोई राधा-कृष्ण का ध्यान समुचित मानते हैं।
ऐसी स्थिति में बुद्धि में भ्रम होता है कि गायत्री-मन्त्र का मुख्य अर्थ और ध्येय क्या है?
इस सम्बन्ध में यद्यपि शास्त्रों में बहुत कुछ विवेचन है, तथापि यहाँ संक्षेप में कुछ लिखा जाता है------
‘बृहदारण्यक[ 5/14] में
"भूमि अन्तरिक्ष, द्यौः' इन आठ अक्षरों को गायत्री का प्रथम पाद कहा है,।
‘"ऋचो यजूंषि सामानि’"इन आठ अक्षरों को गायत्री का द्वितीय पाद कहा गया है,!
" ‘प्राणाऽपनो व्यानः’"इन आठ अक्षरों को गायत्री का तीसरा पाद माना गया है।
इस तरह लोकात्मा, वेदात्मा एवं प्राणत्मा ये तीनों ही गायत्री के तीन पाद हैं।
परब्रह्म परमात्मा ही चतुर्थ पाद है।
‘‘भूमिरन्तरिक्षम’’ इन श्रुतियों पर व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर कहते हैं----
कि सम्पूर्ण छन्दों में गायत्री छन्द प्रधान है, क्योंकि वही छन्दों के प्रयोक्ता गयाख्य प्राणों का रक्षक है।
सम्पूर्ण छन्दों का आत्मा प्राण है, प्राण का आत्मा गायत्री है।
क्षत से रक्षक होने के कारण प्राण क्षात्र है, प्राणों का रक्षण करने वाली गायत्री है।
द्विजोत्तम जन्म का हेतु भी गायत्री ही है।
गायत्री के तीनों पादों की उपासना करने वालों को लोकात्मा, वेदात्मा और प्राणत्मा के सम्पूर्ण विषय उपनत होते हैं।
गायत्री का चतुर्थ पाद ही ‘तुरीय’ शब्द से कहा जाता है। जो रजोजात सम्पूर्ण लोको को प्रकाशित करता है, वह सूर्यमण्डलान्तर्गत पुरुष है।
जैसे वह पुरुष सर्वलोकाधिपत्य की श्री एवं यश से तपता है, वैसे ही तुरीय पाद वेदिता श्री और यश से दीप्त होता है।
गायत्री सम्पूर्ण वेदो की जननी। जो गायत्री का अभिप्राय है, वही सम्पूर्ण वेदों का अर्थ है।
विश्व-तैजस-प्राज्ञ, विराट-हिरण्यगर्भ अव्याकृत, व्यष्टि-समष्टि जगत तथा उसकी जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- यह तीनों अवस्थाएँ प्रणव अ, उ, म इन तीनों मात्राओं के अर्थ हैं।
सर्वपालक परब्रह्म प्रणव का वाच्यार्थ सर्वाधिष्ठान, सर्वप्रकाशक, सगुण, सर्वशक्ति, सर्वरहित ब्रह्म प्रणव का लक्ष्यार्थ है।
उत्पादक, पालक संहारक त्रिविध लोकात्मा भगवान तीनो व्याहृतियों के अर्थ हैं।
जगदुत्पत्ति-स्थिति-संहार-कारण परब्रह्म ही ‘सवितृ’ शब्द का अर्थ है।
तथापि गायत्री द्वारा विश्वोंत्पाद, स्वप्रकाश परमात्मा के उस रमणीय चिन्मय का ध्यान किया जाता है, जो समस्त बुद्धियों का प्रेरक एवं साक्षी है।
विश्वोत्पादक परमात्मा के वरेण्य गर्भ को बुद्धिप्रेरक एवं बुद्धिसाक्षी कहने से जीवात्मा और परमात्मा का अभेद परिलक्षित होता है, अतः साधनचतुष्ट सम्पन्न उत्तमाधिकारी के लिये प्रत्यक चैतन्याभिन्न, निर्गुण, निराकार, निर्विकार, परब्रह्म का ही चिन्तन गायत्री-मन्त्र के द्वारा किया जाता है।
अनन्त कल्याण गुण सम्पन्न, सगुण, निराकार परमेश्वर की उपासना गायत्री के द्वारा किया जा सकता है। सगुण, साकार, सच्चिदानन्द परब्रह्म का ध्यान गायत्री के द्वारा किया जा सकता प्राणिप्रसवार्थक ‘सङ्’ धातु से ‘सवितृ’ शब्द की निष्पत्ति होती है।
यहाँ उत्पत्ति को उपलक्षण मानकर उत्पत्ति, स्थिति एवं लय का कारण पर-ब्रह्म ही ‘सवितृ’ शब्द का अर्थ है। इस दृष्टि से उत्पादक, पालक, संहारक जो भी देवता प्रमाणसिद्ध हैं, वे सभी गायत्री के अर्थ हैं।
उत्पादक पालक संहारक- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा उनकी स्वरूपभूत तीनों शक्तियों का ध्यान किया जाता है।
त्रैलोक्य, त्रैविद्य तथा प्राण जिस गायत्री के स्वरूप हैं, वह त्रिपदा गायत्री परोरजा आदित्य में प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि आदित्य ही मूर्त-अमूर्त तो दोनों ही का रस है।
इसके बिना सब शुष्क हो जाते हैं, अतः त्रिपदा गायत्री आदित्य में प्रतिष्ठित है।
आदित्यः चक्षुः- स्वरूप सत्ता में प्रतिष्ठित है। वह सत्ता बल अर्थात प्राण में प्रतिष्ठित है, अतः सर्वाश्रयभूत प्राण ही परमोत्कृष्ट है।
गायत्री अध्यात्म प्राण में प्रतिष्ठित है। जिस प्राण में सम्पूर्ण देव, वेद कर्मफल एक हो जाते हैं, वही प्राणस्वरूपा गायत्री सबकी आत्मा है।
शब्दकारी वागादि प्राण ‘गय’ हैं, उनका त्राण करने वाली गायत्री है।
आचार्य अष्टवर्ष के बालक को उपनीत करके जब गायत्री का प्रदान करता है। तब जगदात्मा प्राण ही उसके लिये समर्पित करता है। जिस माणवक को आचार्य गायत्री का उपदेश करता है, उसके प्राणों का त्राण करना है, नरकादि पतन से बचा लेता है।
गायत्री के प्रथम पाद को जानने वाला यति यदि धनपूर्ण तीनों लोकों दान ले तो भी उसे कोई दोष नहीं लगता।
जो द्वितीय पाद को जानता है, वह जितने में त्रयी विद्यारूप सूर्य तपता है, उन सब लोको को प्राप्त कर सकता है।
तीसरे पाद को जानने वाला सम्पूर्ण प्राणिवर्ग को प्राप्त कर सकता है।
सारांश यह है कि यदि पादत्रय के समान भी कोई दाता-प्रतिग्रहीता हो, तब भी गायत्रीविद को प्रतिग्रहदोष नही लगता, फिर चतुर्थ पाद के वेदिता के लिये तो ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है, जो उसके ज्ञान का फल कहा जा सके।
वस्तुतः त्रिपाद विज्ञान का भी प्रतिग्रह दोष नहीं लगता फिर चतुर्थ पाद के वेदिता के लिये तो ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है, जो उसके ज्ञान का फल कहा जा सके।
वस्तुतः त्रिपाद-विज्ञान का भी प्रतिग्रह से अधिक ही फल होता है, क्योंकि इतना प्रतिग्रह कौन ले सकता है?
गायत्री के उपस्थान-मन्त्र में कहा गया है कि ....
हे गायत्रि! आप त्रैलोक्यरूप पाद से एक पदी हो, त्रयी वि़द्यारूप पाद से द्विपदी हो, प्राणदि तृतीय पाद से त्रिपदी हा, चतुर्थ तुरीय पाद से चतुष्पदी हो।
इस तरह चार पाद से मन्त्रों द्वारा आपकी उपासना होती है। इसके बाद अपने निरूपाधिक आत्मास्वरूप से अपद हो, ‘नेति-नेति’ इत्यादि निषधों से वह सर्वनिषेधों का अवधिरूप से बोधित सम्पूर्ण व्यवहारों का अगोचर है, अतः प्रत्यक्ष परोरजा आपके तुरीय पाद को हम प्रणाम करते हैं।
आपकी प्राप्ति में विघ्नकारी पापी, आपकी प्राप्ति में विघ्नसम्पादन-लक्षण अपने अभीष्ट को प्राप्त न करें इस अभिप्राय से अथवा जिससे दोष हो, उसके प्रति भी अमुक व्यक्ति अमुक अभिप्रेत फल को प्राप्त न करें, मैं अमुक फल पाऊँ, ऐसी भावना से वह मिल जाता है।
गायत्री का अग्नि ही मुख है। अग्नि-मुख को जानने से ही एक गायत्रीविद हाथी बनकर जनक का बाहन बना था।
जैसे अग्नि से अधिक-से-अधिक ईधन समाप्त हो जाता है, वैसे ही अग्नि-मुख गायत्री के ज्ञान से सब पाप समाप्त हो जाते हैं।
‘छान्दोग्योनिषद’ में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण चराचर भूत प्रपंच गायत्री ही है। किस तरह सब कुछ गायत्री है, इस पर कहा गया है कि वाक ही गायत्री है, वाक ही समस्त भूतों का गान एवं रक्षण करती है। गो, अश्व, महिषि, ‘मा भैषीः’ इत्यादि वचनों से वाक द्वारा ही भय की निवृत्ति होती है।
गायत्री को पृथ्वी रूप मानकर उसमें सम्पूर्ण भूतों की स्थिति मानी गयी है, क्योंकि स्थावर जंगम सभी प्राणिवर्ग पृथ्वी में ही रहते हैं, कोई भी उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता। पृथ्वी को शरीररूप मानकर उसमें सम्पूर्ण प्राणों की स्थिति मानी गयी है।
शरीर को हृदय का रूप मानकर उसमें सम्पूर्णं प्राणों की प्रतिष्ठा कही गयी है।
इस तरह चतुष्पाद, षडक्षरपाद, गायत्री, वाक, भूत, पृथ्वी, शरीर, हृदय प्राणरूपा षडविधा गायत्री का वर्णन है। पुनश्च, सम्पूर्ण विश्व को एकपादमात्र कहकर अन्त में त्रिपाद ब्रह्म को पृथक कहा है।
इसके अतिरिक्त पूर्व कथनानुसार गायत्री-मन्त्र के द्वारा सगुण, निर्गुण किसी भी ब्रह्मस्वरूप की उपासना की जा सकती है।
उत्पत्ति शक्ति ब्रह्माणी, पालिनी शक्ति, नारायणी, संहारिणीशक्ति रुद्राणी का ध्यान गायत्री-मन्त्र के द्वारा सुतरां हो सकता है।
राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य, गणेश आदि जिन-जिनमें विश्वकारणता, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता प्रमाण सिद्ध है, वे सभी परमेश्वर हैं, सभी गायत्री-मन्त्र के अर्थ हैं।
इस दृष्टि से अपने इष्ट देवता का ध्यान गायत्री-मन्त्र द्वारा सर्वथा उपयुक्त है।
‘सविता’ शब्द सूर्य के सम्बन्ध में विशेष प्रसिद्ध है, अतः उसी की सारशक्ति सावित्री को आदित्यमण्डलस्थ भी कहा गया है।
महर्षि कण्व ने अमृतमय दुग्ध से मही को पूर्ण करती हुई गोरूप से गायत्री का अनुभव किया था-
‘‘तां सवितुर्वरेण्यस्य चित्रामहं वृणे सुमतिं विश्वजन्यां।
यामस्य कण्वो अदुहत् प्रपीनां सहस्रधारो पयस्त महीं गाम्।।’’
विश्वमाता, सुमतिरूपा वरेण्य सविता की गर्भस्वरूपा गायत्री का मैं वरण करता हुँ, जिसको कण्व ने हजारों पयोधारा से महीमण्डल को पूर्ण करते हुए देखा।
मोती, मूँगा, सुवर्ण, नील धवलकान्तिवाले पाँच मुखों, तीन-तीन नेत्रों से युक्त, इन्द्रनिबद्ध रत्नों के मुकुटों को धारण किये, वरद, अभ्य, अंकुश कशा, सुभ, कपाल गुण, शंख, चक्र, अरविन्द-युगल दोनों ही तरफ के हाथों में लिये हुए भगवती का ध्यान करना चाहिए।
पंचतत्त्वों एवं पंच देवताओं की सारभूत महाशक्ति एकत्रित होकर पंचमुखी भगवती के रूप में प्रकट है।
‘‘मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणै-
र्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थंवर्ण
ात्मिकाम्।
गायत्रीं वरदाभयांकुशाः शुभ्रं कपालं गुणं
शंख चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्ती भजे।।’’
इस स्वरूप के ध्यान में सगुण-निर्गुण दोनों ही ब्रह्मरूप आ जाते हैं। दिव्य-कमल पर विराजमान, मनोहर भूषण अलंकारों से विभूषित, सुसज्जित उपर्युक्त स्वरूप का ध्यान करना चाहिए।
गायत्री मन्त्र का जप चाहे किसी स्थान, समय एवं स्थिति में नहीं किया जा सकता।
इसके लिये पवित्र देश-काल तथा पात्र की अपेक्षा है, तभी वह त्राण कर सकती है।
साभार
करपात्री जी महाराज
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