भगवान कृष्ण कहते हैं कि, हमारा यह शरीर एक किला के समान है। जिसके प्रमुख 9 छिद्र या दरवाजे हैं। आत्मा इसी 9 दरवाजे वाले शरीर मे निवास करती है। ये नौ दरवाजे मे से किसी एक से समान्यतः अंत काल मे आत्मा निकलती है, और उसी के अनुसार उसकी गति होती है। जैसे मुख से प्रस्थान करने पर उत्तम मनुष्य, कान से प्रस्थान करने पर पक्षियों की योनि प्राप्त होती है।
यह शरीर एक नगर है! प्रज्ञा इसकी चहार दीवारी हौ है! हड्डियाँ खम्भे हैं! चमड़ा इस नगर की दीवार है जो समूचे नगर को रोके है! माँस और रक्त के पंक का इस पर लेप चढ़ा हुआ है! इस नगर मे नौ दरवाजा है, इसकी रक्षा मे बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, नस नाड़ियाँ घेरे हुए हैं, चेतन पुरूष नगर के भीतर राजा के रूप मे विराजमान है उसके दो मन्त्री हैं - बुद्धि और मन! दोनों परस्पर विरोधी हैं, और आपस मे वैर निकालने का यत्न करते रहते हैं, राजा के चार शत्रु हैं - काम, क्रोध., लोभ, मोह! जो उसका नाश चाहते है, जब तक राजा नौ दरवाजों को बन्द किये रहता है तब तक सुरक्षित रहता है!
परन्तु जब नगर के सभी दरवाजे खुला छोड़ देता है राग नामक शत्रु नेत्र आदि द्वारो पर आक्रमण कर देता है! वह हर जगह व्याप्त रहता है, बहुत विशाल और पॉच दरवाज़ो से नगर में प्रवेश करता है! उसके साथ तीन भंयकर शत्रु प्रवेश करते है, पॉच इन्द्रिय नामक द्वारो से शरीर में प्रवेश करके राग, मन तथा अन्यान्य इन्द्रयो के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है और मन तथा इन्द्रयो को वश मे करके वह दुर्धर्ष हो जाता है! और समस्त दरवाजों को काबू में करके चहार दीवारी को नष्ट कर देता है, मन को राग के अधीन देखकर बुद्धि पलायन कर जाती है, नष्ट हो जाती है, जब मन्त्री साथ नहीं रहते तब अन्य पुरबासी भी साथ छोड़ देते है! फिर शत्रुओं को उसके छिद्र का ज्ञान हो जाने से राजा उनके द्वारा नाश को प्राप्त होता है! इस प्रकार राग, मोह, लोभ तथा क्रोध -ये दुरात्मा शत्रु मनुष्य की स्मरण -शक्ति का नाश करने वाले हैं, राग से काम होता है, काम से लोभ का जन्म होता है, लोभ से सम्मोह - अविवेक. होता है! और सम्मोह से स्मरण शक्ति भ्रान्त हो जाती है, स्मृति की भ्रान्ति से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य स्वयं भी नष्ट हो जाता है --कर्तव्य भ्रष्ट हो जाता है!
"इन्द्रिय अश्व शरीर रथ , मन को मानो बाग ।
बुद्धि सारथी ले चला , भोग विषय अनुराग ।।"
शरीर रुपी रथ के धर्म - अधर्म रुपी दो पहिए , और दस प्राण रुपी धुरी हैँ । जिस पर जीवरुपी महारथी सवार होकर औँकार रुपी धारण किये हुए , उसका वेधनीय लक्ष्य परब्रह्म है । राग , द्वेष , लोभ , शोक , मोह , भय , मद , मान , अपमान , निन्दा , माया, हिँसा , मत्सर , प्रमाद , क्षुधा , निद्रा , रजोगुणी , और तमोगुणी , स्वभाव ये सभी शत्रुरुप हैँ । किन्तु कभी कभी परोपकारादि युक्त सतोगुणी स्वभाव भी शत्रुरुप हो जाते हैँ । अतःजब तक इस रथरुपी देह के अंग और आत्मा वश मेँ रहेँ , तब तक गुरुजनोँ की चरण कृपा एवं भगवान के बल से उपरोक्तशत्रुओँ को नष्ट करके परमात्मा की शरण लेकर मोक्षरुपी कीर्ति के प्रकाश से समन्वित होकर शरीर छोड़ दे।
समय रहते ऐसा न करने पर यही इन्द्रिय रुपी अश्व और बुद्धि रुपी सारथी अधर्म मार्ग पर चलकर विषय रुपी चोरो के मध्य डाल देते है , तब वे चोर संसार रुपी घोर चक्र मे धकेल देते है जीवन के पीछे छः चोर -
"काम , क्रोध , लोभ ,मोह , मद , मत्सर लगे है ।"
गृहस्थाश्रम एक किला है । पहले उसमेँ रहकर ही लडना उत्तम है। ये छः शत्रु तो वन मे भी साथ आकर सताते हैँ ।
अतः उन छः शत्रुरुपी विकारो को हराना है।
काम , क्रोध , लोभ ,मोह , मद , मत्सर को जीतना है ।
इन छः शत्रुओ का विजेता गृहस्थ होते हुए भी वनवासी जैसा ही होता है। गृहस्थाश्रमी रहकर इन छः विकारोँ को कुचलना सरल है ।
सुखी होना है तो अपने चालीसवेँ वर्ष मेँ वनगमन
करना चाहिए ।
यह शरीर रथ है और श्रोत्र , त्वक् , जिह्वा , चक्षु , नासिका , ये ज्ञानेन्द्रियाँएवं वाक् , हाथ , पैर , गुदा , और उपस्थ (जननेन्द्रियाँ ) दस इन्द्रियाँ घोड़े । इन्द्रियोँ का नियन्ता मन ही घोड़ो की बागडोर है । शब्द रुप रस गन्ध स्पर्श विषय विभिन्न मार्ग हैँ । बुद्धि इस रथ को चलाने वालासारथी है । इस रथ को बाँधने के लिए ईश्वर ने चित्तरुप बंधन बनाया है । हृदय मेँ प्राणवायू , गुदा मेँ अपानवायु , नाभिमण्डल मेँ समानवायु , कण्ठदेश मेँ उदानवायु , सम्पूर्ण शरीर मेँ व्यानवायु , उदगार (डकार या वमन) मेँ नागवायु , उन्मीलन कराने वाला कूर्मवायु , क्षुधा बढ़ाने वाला कृकल वायु , जँभाई कराने वाला वाला देवदत्तवायु , और सर्वव्यापी धनञ्जय वायु जो मृत्यु के बाद भी मृत शरीर को नहीँ छोड़ता है ये दस प्राण इस रथ की धुरी है । धर्म और अधर्म पहिए हैँ ।
जिसमे अहंकारी जीव बैठता है। ओँकार धनुष है और शुद्ध जीवन बाण । परब्रह्म लक्ष्य है, राग द्वेष लोभ शोक मोह काम क्रोध भय मान अपमान असूया हिँसा मत्सर रजोगुण प्रमाद क्षुधा निद्रा आदि शत्रु हैँ । जब तक मनुष्य का देहरुपी रथ उसके वश मेँ है , उतने समय मनुष्य को सद्गुरुओँ के चरणोँ की सेवा करके , तीक्ष्ण ज्ञानरुपी तलवार लेकर , श्रीभगवान का बल धारण करके राग द्वेषादि शत्रुओँ को जीत ले और तत्पश्चात शांत होकर स्वानंदरुपी स्वराज्य से संतुष्ट होकर शरीर रथ को भी त्याग दे ।
अन्यथा रथ मे विराजमान प्रमादी जीव को तथा दुष्ट इन्द्रियरुपी घोड़ो को बुद्धरुपी सारथी अयोग्य मार्ग पर ले जाकर विषय रुपी चोरो के अधीन कर देगा । वे चोर घोड़ो और सारथी सहित शरीर रुपी रथ को अंधकारव्याप्त और महामृत्यु के भय से पूर्ण संसाररुपी कुएँ मेँ फेँक देगे ।
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