यदि एक दृष्टि से देखा जाए तो कुछ भी भिन्नता नहीं है अौर यदि दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो बहुत भिन्नता है ।
अाहार, निद्रा, भय एवं मैथुन के स्तर पर दोनों समान हैं अर्थात् दोनों ही भोजन करते हैं, विश्राम हेतु सोते हैं, भय को दूर करने के लिए अपने बचाव के लिए अनेक उपाय करते हैं अौर दोनों मैथुन का भोग करते हैं ।
हाँ उनकी इन क्रियाअों का स्थान अौर तरीका इत्यादि भिन्न हो सकता है किन्तु फिर भी क्रिया तो समान ही है अौर इन चारों क्रियाअों का उद्देश्य भी समान ही है ।
तो फिर अन्तर क्या है दोनों में? अन्तर तो तभी अाता है जब धर्म बीच में अाता है, महाभारत में बताया गया है,
"अाहार निद्रा भय मैथुनं च
समन्यमेतद् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषांऽधिको विशेषो
धर्मेणा हीन पशुभिर्समानाम् ।।"
धर्म ही है जो मानव जीवन को विशेष बनाता है अन्यथा धर्म के बिना तो मानव जीवन पशु जीवन के ही समान है क्योंकि धर्म के अभाव व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन इन चार चीजों की अापूर्ति में ही बिता देता है ।
तो यहाँ किस प्रकार के धर्म की बात हो रही है? यहाँ बात हो रही है स्वयं के धर्म को समझने की । स्वयं को समझने की । मैं कौन हूँ? मेरे जीवन में अनेक प्रकार के दु:ख क्यों अा रहे हैं? क्या इन दु:खों को हमेशा-हमेशा के लिए रोका जा सकता है?
पशुअों के जीवन में इन समस्याअों का हमेशा के लिए समाधान करने की सुविधा नहीं है अौर उनके पास जो बुद्धि है भी वह केवल खाने, सोने इत्यादि के लिए ही प्रयोग होती है । जैसे कि बिल्ली को इस बात की बुद्धि है कि धीरे से रसोई में जाकर दूध पीना है, चिड़िया को घोसला बनाने की जटिल तकनीक की बुद्धि है अौर शेर को पता है कैसे अौर कब उसे अपना शिकार करना है ।
अौर यदि मानव भी अपनी बुद्धि का प्रयोग केवल इन्हीं शारीरिक क्रियाअों को बेहतर बनाने के लिए करेगा तो वह पशु समान ही रह जायेगा ।
मानव तो मानव तभी बनता है जब वह अपनी बुद्धि अौर समय का प्रयोग स्वयं की मूलभूत समस्यायें जैसे कि जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा अौर बीमारी को समझने, अपने अौर भगवान् के अस्तित्व को जानने तथा परम एवं शाश्वत् सुख की प्राप्ति के लिए करता है ।
प्रत्येक पशु में कुछ न कुछ ऐसा है, जो मनुष्य को कहीं पीछे छोड़ देता है। कोई रात में भी देखता है, कोई उड़ता है, कोई तैरता है। यह भी की पशु को चलना, बोलना, खाना आदि भी सिखाने की उतनी आवश्यकता नहीं मालूम होती।
और पशु में ही क्यों, वृक्षों में, यहाँ तक की पत्थर, पहाड़, हवा, पानी, सब किसी ना किसी बात में मनुष्य से श्रेष्ठ हैं। रेगिस्तान की नदी के किनारे खड़े पेड़ की जड़ों को भी मालूम है कि पानी इधर है या उधर।
फिर भी असल बात है कि "बड़े भाग मानुष तन पावा"। क्यों?
'ज्ञान' और 'विज्ञान' में क्या भेद है ? यदि इस पर विचार करें तो आप यह जान पाएँगे कि 'ज्ञान' में वि जुड़ने पर 'विज्ञान' अस्तित्व में आता है सरल शब्दों में 'ज्ञान' के पीछे - पीछे 'विज्ञान' चलता है। विज्ञान पशु और मानव को समरूप बताता है वही आहार, निद्रा, क्रोध, भय और मैथुन इन लक्षणों विषयों के बोझ तले दबा हुआ प्राणी। जबकि ज्ञान हमें बताता है - 'बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद ग्रंथन गावा।' पशु एक आयामी या द्विआयामी होता है। परंतु मानव बहुआयामी होता है वह एक साथ अनेक चीजों को कर सकता है। इसी कारण वह अपने मूल लक्ष्य से दूर होकर अनेकों प्रपंचों में फंसा रहता है।
देखो पशु में एक ही आयाम है, वो यह कि वे जो हैं, जैसे हैं, बस हैं। अपनी सीमित शक्तियों को भोग के निमित उपयोग करने के सिवा, कोई चारा उनके पास नहीं है।
पर मनुष्य कमजोर भले ही लगे, लेकिन दो आयामी है, माने वो जो है, वो तो है ही, वह कुछ और भी हो सकता है। अपनी विलक्षण बुद्धि के उपयोग से वह तो परमात्मा तक भी पहुँच सकता है।
ऐसे समझो, गुलाब की झाड़ी में काँटे, फूल से, संख्या में भी अधिक हैं, उनका प्रभाव भी अधिक है, आयु भी। नाजुक फूल की काँटों के सामने औकात नहीं है, फिर भी फूल में कुछ है जो काँटे में नहीं है, तभी वह झाड़ी कैक्टस नहीं, गुलाब कहलाती है, माने उस पौधे की पहचान काँटे से नहीं फूल से की जाती है।
ऐसे ही, एक लाख गुण हों तो भी पशु पशु ही है, मनुष्य कहीं श्रेष्ठ है। उसके पास मुक्ति की संभावना नहीं, मनुष्य के पास अनन्त संभावना है।
मूल बात, जो मनुष्य मुक्त होने का प्रयास नहीं करता, कमाना, खाना, पैखाना ही जिसके जीवन का लक्ष्य है, जो आहार, निद्रा, भय, मैथुन में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रहा है, वह तो पशु भी कहलाने का अधिकारी नहीं, वह तो पशु से भी गिरा हुआ है।
अाहार, निद्रा, भय एवं मैथुन के स्तर पर दोनों समान हैं अर्थात् दोनों ही भोजन करते हैं, विश्राम हेतु सोते हैं, भय को दूर करने के लिए अपने बचाव के लिए अनेक उपाय करते हैं अौर दोनों मैथुन का भोग करते हैं ।
हाँ उनकी इन क्रियाअों का स्थान अौर तरीका इत्यादि भिन्न हो सकता है किन्तु फिर भी क्रिया तो समान ही है अौर इन चारों क्रियाअों का उद्देश्य भी समान ही है ।
तो फिर अन्तर क्या है दोनों में? अन्तर तो तभी अाता है जब धर्म बीच में अाता है, महाभारत में बताया गया है,
"अाहार निद्रा भय मैथुनं च
समन्यमेतद् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषांऽधिको विशेषो
धर्मेणा हीन पशुभिर्समानाम् ।।"
धर्म ही है जो मानव जीवन को विशेष बनाता है अन्यथा धर्म के बिना तो मानव जीवन पशु जीवन के ही समान है क्योंकि धर्म के अभाव व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन इन चार चीजों की अापूर्ति में ही बिता देता है ।
तो यहाँ किस प्रकार के धर्म की बात हो रही है? यहाँ बात हो रही है स्वयं के धर्म को समझने की । स्वयं को समझने की । मैं कौन हूँ? मेरे जीवन में अनेक प्रकार के दु:ख क्यों अा रहे हैं? क्या इन दु:खों को हमेशा-हमेशा के लिए रोका जा सकता है?
पशुअों के जीवन में इन समस्याअों का हमेशा के लिए समाधान करने की सुविधा नहीं है अौर उनके पास जो बुद्धि है भी वह केवल खाने, सोने इत्यादि के लिए ही प्रयोग होती है । जैसे कि बिल्ली को इस बात की बुद्धि है कि धीरे से रसोई में जाकर दूध पीना है, चिड़िया को घोसला बनाने की जटिल तकनीक की बुद्धि है अौर शेर को पता है कैसे अौर कब उसे अपना शिकार करना है ।
अौर यदि मानव भी अपनी बुद्धि का प्रयोग केवल इन्हीं शारीरिक क्रियाअों को बेहतर बनाने के लिए करेगा तो वह पशु समान ही रह जायेगा ।
मानव तो मानव तभी बनता है जब वह अपनी बुद्धि अौर समय का प्रयोग स्वयं की मूलभूत समस्यायें जैसे कि जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा अौर बीमारी को समझने, अपने अौर भगवान् के अस्तित्व को जानने तथा परम एवं शाश्वत् सुख की प्राप्ति के लिए करता है ।
प्रत्येक पशु में कुछ न कुछ ऐसा है, जो मनुष्य को कहीं पीछे छोड़ देता है। कोई रात में भी देखता है, कोई उड़ता है, कोई तैरता है। यह भी की पशु को चलना, बोलना, खाना आदि भी सिखाने की उतनी आवश्यकता नहीं मालूम होती।
और पशु में ही क्यों, वृक्षों में, यहाँ तक की पत्थर, पहाड़, हवा, पानी, सब किसी ना किसी बात में मनुष्य से श्रेष्ठ हैं। रेगिस्तान की नदी के किनारे खड़े पेड़ की जड़ों को भी मालूम है कि पानी इधर है या उधर।
फिर भी असल बात है कि "बड़े भाग मानुष तन पावा"। क्यों?
'ज्ञान' और 'विज्ञान' में क्या भेद है ? यदि इस पर विचार करें तो आप यह जान पाएँगे कि 'ज्ञान' में वि जुड़ने पर 'विज्ञान' अस्तित्व में आता है सरल शब्दों में 'ज्ञान' के पीछे - पीछे 'विज्ञान' चलता है। विज्ञान पशु और मानव को समरूप बताता है वही आहार, निद्रा, क्रोध, भय और मैथुन इन लक्षणों विषयों के बोझ तले दबा हुआ प्राणी। जबकि ज्ञान हमें बताता है - 'बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद ग्रंथन गावा।' पशु एक आयामी या द्विआयामी होता है। परंतु मानव बहुआयामी होता है वह एक साथ अनेक चीजों को कर सकता है। इसी कारण वह अपने मूल लक्ष्य से दूर होकर अनेकों प्रपंचों में फंसा रहता है।
देखो पशु में एक ही आयाम है, वो यह कि वे जो हैं, जैसे हैं, बस हैं। अपनी सीमित शक्तियों को भोग के निमित उपयोग करने के सिवा, कोई चारा उनके पास नहीं है।
पर मनुष्य कमजोर भले ही लगे, लेकिन दो आयामी है, माने वो जो है, वो तो है ही, वह कुछ और भी हो सकता है। अपनी विलक्षण बुद्धि के उपयोग से वह तो परमात्मा तक भी पहुँच सकता है।
ऐसे समझो, गुलाब की झाड़ी में काँटे, फूल से, संख्या में भी अधिक हैं, उनका प्रभाव भी अधिक है, आयु भी। नाजुक फूल की काँटों के सामने औकात नहीं है, फिर भी फूल में कुछ है जो काँटे में नहीं है, तभी वह झाड़ी कैक्टस नहीं, गुलाब कहलाती है, माने उस पौधे की पहचान काँटे से नहीं फूल से की जाती है।
ऐसे ही, एक लाख गुण हों तो भी पशु पशु ही है, मनुष्य कहीं श्रेष्ठ है। उसके पास मुक्ति की संभावना नहीं, मनुष्य के पास अनन्त संभावना है।
मूल बात, जो मनुष्य मुक्त होने का प्रयास नहीं करता, कमाना, खाना, पैखाना ही जिसके जीवन का लक्ष्य है, जो आहार, निद्रा, भय, मैथुन में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान रहा है, वह तो पशु भी कहलाने का अधिकारी नहीं, वह तो पशु से भी गिरा हुआ है।
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