बृहदारण्यकोपनिषद् उपनिषद् के अनुसार सृष्टि के पहले केवल ब्रह्म था। वह अव्याकृत था। उसने अहंकार किया जिससे उसने व्याकृत सृष्टि उत्पन्न की; दो पैरवाले, चार पैरवाले, पुर उसने बनाए और उनमें पक्षी बनकर पैठ गया। उसने अपनी माया से बहुत रूप धारण किए और इस प्रकार नाना रूप से भासमान ब्रह्माण्ड की रचना करके उसमें नखाग्र से शिक्षा तक अनुप्रविष्ट हो गया। शरीर में जो आत्मा है वही ब्रह्मांड में व्याप्त है और हमें जो नाना प्रकार का भान होता है वह ब्रह्म रूप है। पृथ्वी, जल, और अग्नि उसी के मूर्त एवं वायु तथा आकाश अमूर्त रूप हैं।
स्त्री, संतान अथवा जिस किसी से मनुष्य प्रेम करता है वह वस्तुत: अपने लिए करता है। अस्तु, यह आत्मा क्या है, इसे ढूँढना चाहिए, ज्ञानियों से इसके विषय में सुनना, इसका मनन करना और समाधि में साक्षात्कार करना ही परम पुरुषार्थ है।
'चक्षुर्वै सत्यम्' अर्थात् आँख देखी बात सत्य मानने की लोकधारणा के विचार से जगत् सत्य है, परंतु वह प्रत्यक्षत: अनित्य और परिवर्तनशील है और निश्चय ही उसके मूल में स्थित तत्व नित्य और अविकारी है। अतएव मूल तत्व को 'सत्य का सत्य' अथवा अमृत कहते हैं। नाशवान् 'सत्य' से अमृत ढँका हुआ है।
अज्ञान अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानने के कारण मनुष्य संसार के नाना प्रकार के व्यापारों में लिपटा हुआ सांसारिक वित्त आदि नाशवान पदार्थों से अक्षय सुख की व्यर्थ आशा करता है। कामनामय होने से जिस उद्देश्य की वह कामना करता है तद्रूप हो जाता हैं; पुण्य कर्मों से पुण्यवान् और पाप कर्मों से पापी होता और मृत्यु काल में उसके प्राण उत्क्रमण करके कर्मानुसार मृत्युलोक, पितृलोक अथवा देवलोक प्राप्त करते हैं। जिस देवता की वह उपासना करता है मानो उसी का पशु हो जाता है। यह अज्ञान आत्मा की 'महती विनष्टि' (सब से बड़ी क्षति) है।
आत्मा और ब्रह्म एक हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिसे नानात्व दिखता है वह मृत्यु से मृत्यु की ओर बढ़ता है। आत्मा महान्, अनंत, अपार, अविनाशी, अनुच्छित्तिधर्मा और विज्ञानधन है। नमक की डली पानी में घुल जाने पर एकरस हो जाने से जैसे नमक और पानी का अभेद हो जाता है, ब्रह्मात्मैक्य तद्रूप अभेदात्मक है। जिसे समय साधक हो यह अपरोक्षानुभूति हो जाती है कि मैं ब्रह्म हूँ और भूतात्माएँ और मैं एक हूँ उसके द्रष्टा और दृष्टि, ज्ञाता और ज्ञेय इत्यादि भेद विलीन हो जाते हैं, और वह 'ब्रह्म भवतिय एवं वेद' - ब्रह्मभूत हो जाता है। उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते, वह यहीं जीवन्मुक्त हो जाता है। वह विधि निषेध के परे है। उसे संन्यास लेकर भैक्ष्यचर्या करनी चाहिए। यह ज्ञान की परमावधि, आत्मा की परम गति और परमानंद है जिसका अंश प्राणियों का जीवनस्त्रोत है।
यह शोक-मोह-रहित, विज्वर और विलक्षण आनंद की स्थिति है जिससे ब्रह्म को 'विज्ञानमानंदंब
्रह्म' कहा गया है। यह स्वरूप मन और इंद्रियों के अगोचर और केवल समाधि में प्रत्यक्षानुभूति का विषय एवं नामरूप से परे होने के कारण, ब्रह्म का 'नेति नेति' शब्दों द्वारा अंतिम निर्देश है।
आत्मसाक्षात्कार के लिए वेदानुबंधन, यज्ञ, दान और तपोपवासादि से चित्तशुद्धि करके सूर्य, चंद्र, विद्युत्, आकाश, वायु, जल इत्यादि अथवा प्राणरूप से ब्रह्म की उपासना का निर्देश करते हुए आत्मचिंतन सर्वश्रेष्ठ उपासना बतलाई गई है।
शान्ति मन्त्र संपादित करें
इस उपनिषद का शान्तिपाठ निम्न है:
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इस उपनिषद् का प्रसिद्ध श्लोक निम्नलिखित है -
ॐ असतोमा सद्गमय।
तमसोमा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28.
निम्नलिखित श्लोक वृहदारण्यक उपनिषद के आरम्भ और अन्त में आता है-
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
स्त्री, संतान अथवा जिस किसी से मनुष्य प्रेम करता है वह वस्तुत: अपने लिए करता है। अस्तु, यह आत्मा क्या है, इसे ढूँढना चाहिए, ज्ञानियों से इसके विषय में सुनना, इसका मनन करना और समाधि में साक्षात्कार करना ही परम पुरुषार्थ है।
'चक्षुर्वै सत्यम्' अर्थात् आँख देखी बात सत्य मानने की लोकधारणा के विचार से जगत् सत्य है, परंतु वह प्रत्यक्षत: अनित्य और परिवर्तनशील है और निश्चय ही उसके मूल में स्थित तत्व नित्य और अविकारी है। अतएव मूल तत्व को 'सत्य का सत्य' अथवा अमृत कहते हैं। नाशवान् 'सत्य' से अमृत ढँका हुआ है।
अज्ञान अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानने के कारण मनुष्य संसार के नाना प्रकार के व्यापारों में लिपटा हुआ सांसारिक वित्त आदि नाशवान पदार्थों से अक्षय सुख की व्यर्थ आशा करता है। कामनामय होने से जिस उद्देश्य की वह कामना करता है तद्रूप हो जाता हैं; पुण्य कर्मों से पुण्यवान् और पाप कर्मों से पापी होता और मृत्यु काल में उसके प्राण उत्क्रमण करके कर्मानुसार मृत्युलोक, पितृलोक अथवा देवलोक प्राप्त करते हैं। जिस देवता की वह उपासना करता है मानो उसी का पशु हो जाता है। यह अज्ञान आत्मा की 'महती विनष्टि' (सब से बड़ी क्षति) है।
आत्मा और ब्रह्म एक हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जिसे नानात्व दिखता है वह मृत्यु से मृत्यु की ओर बढ़ता है। आत्मा महान्, अनंत, अपार, अविनाशी, अनुच्छित्तिधर्मा और विज्ञानधन है। नमक की डली पानी में घुल जाने पर एकरस हो जाने से जैसे नमक और पानी का अभेद हो जाता है, ब्रह्मात्मैक्य तद्रूप अभेदात्मक है। जिसे समय साधक हो यह अपरोक्षानुभूति हो जाती है कि मैं ब्रह्म हूँ और भूतात्माएँ और मैं एक हूँ उसके द्रष्टा और दृष्टि, ज्ञाता और ज्ञेय इत्यादि भेद विलीन हो जाते हैं, और वह 'ब्रह्म भवतिय एवं वेद' - ब्रह्मभूत हो जाता है। उसके प्राण उत्क्रमण नहीं करते, वह यहीं जीवन्मुक्त हो जाता है। वह विधि निषेध के परे है। उसे संन्यास लेकर भैक्ष्यचर्या करनी चाहिए। यह ज्ञान की परमावधि, आत्मा की परम गति और परमानंद है जिसका अंश प्राणियों का जीवनस्त्रोत है।
यह शोक-मोह-रहित, विज्वर और विलक्षण आनंद की स्थिति है जिससे ब्रह्म को 'विज्ञानमानंदंब
्रह्म' कहा गया है। यह स्वरूप मन और इंद्रियों के अगोचर और केवल समाधि में प्रत्यक्षानुभूति का विषय एवं नामरूप से परे होने के कारण, ब्रह्म का 'नेति नेति' शब्दों द्वारा अंतिम निर्देश है।
आत्मसाक्षात्कार के लिए वेदानुबंधन, यज्ञ, दान और तपोपवासादि से चित्तशुद्धि करके सूर्य, चंद्र, विद्युत्, आकाश, वायु, जल इत्यादि अथवा प्राणरूप से ब्रह्म की उपासना का निर्देश करते हुए आत्मचिंतन सर्वश्रेष्ठ उपासना बतलाई गई है।
शान्ति मन्त्र संपादित करें
इस उपनिषद का शान्तिपाठ निम्न है:
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इस उपनिषद् का प्रसिद्ध श्लोक निम्नलिखित है -
ॐ असतोमा सद्गमय।
तमसोमा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ – बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28.
निम्नलिखित श्लोक वृहदारण्यक उपनिषद के आरम्भ और अन्त में आता है-
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
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