अधिकांशतः लोग महर्षि वाल्मीकि को शूद्र समझने की भूल कर देते हैं। महर्षि वाल्मीकि ब्राह्मण थे और उन्होने अपना परिचय स्वयं रामायण मे दिया है।
वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड सर्ग 16 श्लोक में वाल्मीकि ने कहा है, राम मैं प्रचेता का दशवाँ पुत्र हुँ। मनुस्मृति में लिखा है प्रचेता ब्रह्मा का पुत्र था।रामायण के नाम से प्रचलित कई पुस्तको में भी महाकवि वाल्मीकि ने अपना जन्म ब्राह्मण कुल में बताया है ।
महर्षि वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं. उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था.
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण मे स्वयं कहा है कि :
प्रेचेतसोंह दशमाः पुत्रों रघवनंदन।
मनसा कर्मणा वाचा, भूतपूर्व न किल्विषम्।।
अर्थात-
हे राम! मै प्रचेता मुनि का दसवां पुत्र हूँ और मैंने अपने जीवन में कभी भी कोई पाप नहीं किया है।
वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या ७,९३,१६, में लिखा है कि वे प्रचेता मुनि के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम 'अग्निशर्मा' एवं 'रत्नाकर' थे।
भगवान वाल्मीकि के पिता का नाम वरुण और मां का नाम चार्षणी था। वह अपने माता-पिता के दसवें पुत्र थे। उनके भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे। महर्षि कश्यप और अदिति के नौवीं संतान थे उनके पिता वरुण। वरुण का एक नाम प्रचेता भी है, इसलिए वाल्मीकि प्राचेतस नाम से भी विख्यात हैं।
मत्स्य पुराण में भगवान वाल्मीकि को भार्गव नाम से संबोधित किया जाता है, तथा भागवत में उन्हें महायोगी कहा गया है। सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रचित दशमग्रन्थ में वाल्मीकि को ब्रह्मा का प्रथम अवतार कहा गया है।
परम्परा में महर्षि वाल्मीकि को कुलपति कहा गया है। कुलपति उस आश्रम प्रमुख को कहा जाता था जिनके आश्रम में शिष्यों के आवास, भोजन, वस्त्र, शिक्षा आदि का प्रबंध होता था। वाल्मीकि का आश्रम गंगा नदी के निकट बहने वाली तमसा नदी के किनारे स्थित था।
वाल्मीकि का नाम वाल्मीकि कैसे पड़ा इसकी एक रोचक कथा है। वाल्मीकि ने पूरी तरह़ भगवान की भक्ति की और ईश्वर में तल्लीन रहने लगे। एक बार जब वह घोर तपस्या में लीन थे, उनके समाधिस्थ शरीर पर दीमकों ने अपनी बाम्बियां बना लीं। दीमकों की बाम्बियों को संस्कृत में वाल्मीक कहा जाता है। लेकिन वाल्मीकि को इसका आभास तक नहीं हुआ और वह तपस्या में मगन रहे और उसी अवस्था में आत्मज्ञानी बने। आखिरकार आकाशवाणी हुई तुमने ईश्वर के दर्शन कर लिए हैं। तुम्हें तो इसका ज्ञान तक नहीं है कि दीमकों ने तुम्हारी देह पर अपनी बाम्बियां बना ली हैं। तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। अब से तुम्हें संसार में वाल्मीकि के नाम से जाना जाएगा।
भगवान वाल्मीकि के जीवन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं नारद द्वारा उपदेश पाना और बहेलिया द्वारा क्रौंच पक्षी के जोडे मे से एक का वध होते देखना हुईं जिन्होंने न केवल उनके अन्तर्मन को हिला कर रख दिया बल्कि ये रामायण के आविर्भाव और रामायण के अंतिम काण्ड उत्तरकाण्ड की आधारशिला बनीं। ब्रह्मा जी उनके पास आए और उनसे अनुरोध किया कि वह अनुष्टुप छंद में राम-कथा लिखें।
भगवान् वाल्मीकि जी त्रेता युग के त्रिकालदर्शी ऋषि थे और अपनी दिव्य दृष्टि से राम के वनवास से रावण का वध कर सीता को साथ ले अयोध्या वापस आने तक राम लीला देख चुके थे। फलस्वरूप उन्होंने रामायण रची और उसके माध्यम से संस्कृति, मर्यादा व जीवनपद्धति को गढ़ा।
उन्होंने राम के पुत्रों का लालन पालन किया तथा राम द्वारा त्यागे जाने पर सीता को अपने आश्रम में शरण दी तथा बाद में उनकी प्रेरणा से ही सीता और लव कुश का राम से मिलन हुआ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वाल्मीकि कोई जाति नही है। उनकी तपस्या की वजह से उन्हे ऐसा कहा गया।
जिस प्रकार गाँधी जी शूद्रों को हरिजन कहने लगे थे। वैसे ही 80 वर्ष पहले आर्य समाजियों के कहने पर चूहडा जनजाति अपने नाम के बाद वाल्मीकि लिखने लगे। जगजीवन रामजी के सत्ता मे आने के बाद कई जनजाति के लोग अपने नाम के बाद 'राम' लिखने लगे।100 साल बाद इसी तरह भगवान राम मे भ्रम पैदा होगा। इसलिये इन सब भ्रमों को समझना चाहिये।
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